गुप्तजी की कला | Guptaji Ki Kala

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Guptaji Ki Kala by डॉ ० महेंद्र - Dr. Mahendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुप्तजी की कला दूर एक कोने में बैठा हुमा, पुराने विशाल सेंडदरों की चुद सामम्री लेकर, श्रपनी कलाशाला मे कलाकार जीर्णोद्धार दो नहीं कर रहा है, वरन्‌ मूर्तियों को ओड-तोड कर नया रँँग भर रहा है-उन्हें नवज्ञीवन से ज्ञोयित कर रद्दा है। व उसका चदद कलाभवन भर-सा चुका हैं। यद उसने भारत की भारती थी भूत्ति यनाई 1 भारतमाता के मन्दिर के श्ननन्य पुजारी ने कैसा 'छोन्न भरा हैं, कैंमा दर्प श्यक्कित किया है और कैसे क्षोभ की रेपे डाली ह । इसमे जद णक श्योर जयद्रय, ध्रभि- मन्यु, रसन शौर दृष्ण द्वार क्या हुआ संप्राम रचा गया है, वीं दूसरी 'ओर बौद्ध के 'झनघ और यशोधरां सज्ञाए गण् हैं । राम्‌ शौर उनके चरिय का तो यहाँ प्रघान स्थान है, सिसमें खो. जाति बा तेज तपे हुए सोने की भांति उद्दोय ररती हुई उर्मिला भवन को प्रकाशित पर रही हैं। कृप्ण-लीवन का सदचारी वर्म भी सन्धियुग में सदा है--दरएर श्रपनी श्रपनो सनोव्यया चौर निजो कथा कदने मे न्यस्त ! सारी सामपो पर उदार वैष्णव सगा चदाया गया हैं, 'और मभी मूर्तियों मारनमाता के मन्दिर को




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