दूसरी बार | Dusari Baar

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Dusari Baar by श्रीकांत वर्मा - Shreekant Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरी बार १५ था झौर सोच नही पा रहा था कि मे उसके सग किस तरह चलूं। जव मम्बन्ध स्पप्ट न हो तो यह निर्णय करना कठिन होता है कि किस तरह चला जाए, कुछ श्रागे या साथ या कुछ हट कर ! अ्रगर यह दुविधा न होती तो दायद में सडक से गुजरती हुई टंवसी को न रोकता, ठीक स्टैड पर जाकर ही तेता ! मगर इस परिस्थिति मे मु जसे ही टक्सी नज़र झ्ायी, में ने रोक दी श्रौर जब वह रक गयी तो मुक्त सचमुच ही बहुत वडा छुटकारा-सा मिला । मैने तेज़ी से टवसी का दरवाज़ा खोल दिया। मगर वह ठिठकी रही । में यह भूल चुका था कि हमेगा भूमेः पहले बेठना होता था । श्रौर जब में बेठ जाता था वह मेरे वायी श्रोर बेठती थी । इसलिए जब में उसी तरह खड़ा रहा था तो एक बार झाँखे उठाकर उसने मुझे देखा । एक क्षण के सोवें भाग भर की तिलमिलाहट उनमे कौधघी जिसे तुरन्त ही उसने पी लिया । | विदो के साथ इन सडको पर श्रौर इस तरह म इतनी वार गुजरा था कि कुछ भ्रसें बाद तो सडक ही मर गयी थी मगर यह पहला भ्रवसर था जव सड़कें मुभे; श्रटपटी प्रतीत हो रही थी भ्रौर लग रहा था मु जबरदस्ती एक टेवसी मे मेरे प्रतिद्न्द्वी के साथ ठूंस दिया गया है । सामने लगे आईने में सुकते बिदो का चेहरा नज़र झा रहा था जिसमें फिर से उसका सयम वापस शा चुका था । झायद उसे कोई श्रडचन महसूस नहीं हो रही है। मु भुंकलाहट हुई । बिंदो के जाने के बाद मैंने उसके बारे में एक बार नये सिरे से सोचा था आझौर जैसे सतह की काई हटा देमे कै वाद एक दूसरा ही चेहरा उभरता है वंसे ही बिंदो का एक दूसरा ही चित्र स्रामने श्राया था! उन्ही बातो, उन्ही घटनाश्रों गौर उन्हीं मुद्दों ॐ ५ का ग्रथं वदल गया था श्रौर में नें पाया था कि बिदो एक बहुत धमडी स्त्री




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