ध्वन्यालोक | Dhvanyalok

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तार्वनां ७ याह्य प्रमाणो से भी ग्रानस्दवर्धन का यही समय सिद्ध होता है । श्ानन्दव्धन ने ध्वन्यालोक मे उद्भट का उत्तेखं किया है । उद्भट का समय वा ८०० ई० के तग~ भग का है । राजशेखर मे श्रानन्दवर्धन की प्रशंसा की है । राजशेखर का समय १०० ई० नैः लगभग का है । प्रतः श्रानन्दवर्धन के समय को नवीं शताब्दी के मध्य से लेकर समाप्ति तक का सरलता से कह जा सकता हे श्रौर विप्णुपद भट्टाचायं वा यह कपन ठोक प्रतीत होता है कि ब्रानन्दव्धन का श्रस्तिम समय £०२ ई समा नां सक्ता हैः] श्रानन्दवधंन के वश एव जीवन वृत्तान्त के सम्बन्ध मे कदं सामभ्री प्रप्त नही दती । केवल यही जाना जा सकता है कि वे नोण या नोरोषाध्य्य के पुत्र ये। श्वन्यातोफ' की एक परण्डुक्तिपि मे तीसरे उ्दयोते के श्रन्त में उन्होंने मपने को नोशसुव महा है । 'काव्यानुशारान' मे, हेमचन्द्र ने टीका वरते हये श्रानन्दव्धेन के 'देवीशतक' धरा उत्लेख विया है श्रौर इनको नीणयुत वहा है । देवीशत्तक के १०१९ वें श्लोक में भ्रानन्दवर्धेन ने स्यय को नोणयुत कहा है । ३. भ्रानन्दवर्धन फो रचनार्ये *ध्यन्पालोक' के रचयिता ग्रानन्दवर्थन न देवल समालोचक ही ये, प्रिदुकूषि श्रीद दागेनिक भो थे । इन्होने काव्यो मोर दर्शन-ग्रस्थी वी रचना भी की थी ! झानन्दवर्षन ने तीन बाध्य लिते य -देदीशतङ, विषमवाएतीला पोर प्रजन, धरित । परानन्दव्धन पा देवीशतक' भगवतो दुर्या फो भाराधनाके तिये तिसा गया काव्य है) मह वाच्य प्रारष्दवपेन के.विरोधी चरित को प्रस्तुत करता है) ध्वनित्रारमे एक झोर यह लिखा है कि रस से भाक्षिप्त होकर [जन प्रलये का नियोजन बिना किसी पृथक्‌ यत्न के हो सङके, ध्वनि में उनका ही निषेश होना चाहिये, तथा यमक प्रादि भ्लसुप्ररो का नियोजन धूप्‌ यल से करना पदता है” जिस पर टीका करते हु प्रभिनवगृप्त फा क्यन है कि वीर, भद्ध,त भादि रसो में भी यमक भ्रादि का नियोजन १. धयतिनाऽतिपभीरेण परास्यतस्वनिवेभिना ॥ भ्रानन्दवर्धेन. षस्य नासीदानिन्दवर्धेनः जह्दण मी 'मूक्तिपुक्तादली' राजशिसर के नाम से उदव 1 २. विप्णुर्द भट्टाचायं शत ध्यन्यालों रप्याय्या नी प्ररठावना पृष्ठ १४३ + ३, दध्या स्वेप्नाददुादिष्टदेवीगतक्सनया देचितानुपमाप्रापादतो नोणभूतोनृनिमू ॥1 दाष्दमापा माप ६॥ %. रमा्षिप्तत्तया यस्य यम्ध भक्षो भपेत्‌ा पद्ूपण्यनतिकयंः गोन्तद्भारो घ्वनो मन. ॥ यमके च प्रपस्येन बुद्धिटूपेक शियमाओं मियमेनेत्र यन्नास्त इपशदिशेपान्वेप रूप ॥ ध्वस्पालोर दिलीप उपरेत कारिका-- १९ रपरिप्रहे प्रपतति एवं उसकी वृत्ति॥




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