शीलपाहुड़ प्रवचन | Sheelpahud Pravachan

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Sheelpahud Pravachan by सुमेरचंद जैन - Sumerchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छन्द ३ ७ के बारेमे बहुत कुछ वणन बीचमे क्रिया जाता है, पर उस विशाल वर्णनके बाद फिर प्रयोजनकी बात थोड़े शब्दोमे कही जाती है । तो ऐसे ही. मोक्षमागंके भ्रष्गगमे बहुत कुछ वर्सनके बाद श्रन्तमे श्रात्माके शील स्वभावका वर्णन किया गया है । ग्रब इस शोल प्रौर गुणोके विषथमे प्रागे विशेष विवरण चलेगा 1 दुक््ेणोयदि राण रणं ऊण भावरा दक्ख । मावियमरई व जीवो विस्येपु विरज्जए दुकंखं ।३॥ (५) ज्ञानकी दुलंमता व ज्ञाचसे मो श्रधिक ज्ञानभावना की दुर्लभता प्रथम बान तो यंह है कि ज्ञानका पाना हो बड कठिन है । संसारमे कितने जीव है ? मनुष्योकी सश्यातो सभी गतिके जीवोसे थोडी है । कुछ सनुष्योको छोडकर, कुख , ऊेचे देवोको छोडकर प्राय सर्वत्र श्रज्ञानदशा छायी है, भले ही कुछ सम्यग्हष्टि सभी गतियोमे होते है, मगर ज्ञानकी विशे- पता सब जगह नहीं मिलती । देखो यह कभी एकेन्द्रिय था तो उसका कितनासा ज्ञान ? दोइन्द्रिय हुम्रा, तीनइन्द्रिप, चार- इन्द्रिय, पचि इन्द्रिय वाला हृप्रा, श्रसन्नो रहा तो वहां किनना सा ज्ञान ? मनुष्योमे.मो कोन फितना ज्ञान रखती है, ज्ञानकी प्राप्ति बहुत ही दुलेभ है । इसके विषयमे तो कहा है--'घन कन कचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान । घन हो, स्वर हो, चाँदो हो, वैभव हो, राजपाट हो, कुछ भी श्रन्थ बात हो 4 {कमव क्न भ भ ~




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