हमारी राष्ट्रीय समस्याएँ | Hamari Rashtriy Samasyaen

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Hamari Rashtriy Samasyaen by भगवानदास केला - Bhagwandas Kela

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र इमारी राष्ट्रीय समस्याएं उसके सामने श्राते हैं। अकेले, उसका मन नहीं लगता । फिर, श्रकेले रहने की दशा में उसे जंगली जानवरों का भी भय रहता है। इसके श्रलात्रा उसकी तरह तरह की जरूरत है, उन्हं पूरा केरने के लिए मी उसे समाज में रहना होता है । प्राचीन काल मे मवुष्य का जीवम बहुत सरल शौर सादा था, उसको जरूरत कम थीं, तो भी उसे भूख-प्यास भौर सर्दी-गमीं श्रादि तो लगती ही थी। उसे भाजनश्रौर पानीकी जरूरत होती थी । पानी जहाँ तहाँ नदियों या मरनों में मिल भी जाय, भोजन तो हर जगह मिलना कठिन था । शिकार के लिए मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ मिलकर, मंडली या टोली बना कर रददना पड़ा । पीछे पडयु-पालन शोर खेती के लिर्‌ तो आद्मियों को इकट्र तथा स्थायी रूप से एक जगह रहने की श्र भी अधिक जरूरत हुई । धीरे-धीरे ज्यां -ऽ्यों सभ्यता षी. मनुष्यों ङी जरूगते भी बढ़ती गई । श्रत्र तो उनके श्रकेले-दुकेले रहने की बात दी क्या, अकसर एक गाँव में भी मनुष्य की जरूरतें पूरी नहीं होतीं, उसे दूसरे गाँवों ही नहीं, दूर दूर के नगरों या कस्वों से सम्बन्ध रखना होता है । कोई मनुष्य केवल अपने ही द्वारा पैदा की हुई चीजों से गुजारा नही कर सक्ता उसे दृसरों से सहायता लेनी अर उन्हं सक्षायत दनी ही पड़गी । इस तरह मनुष्यों का श्रापस में सम्बध होना लजमीहै। शुरू में मनुष्य का प्रेम अपने परिवार से होता है । जन्म लेने के समय से ही हरेक बच्चे का अपनी माता से, श्रोर कुछ समय बाद्‌ पिता से, सम्बन्ध ्ो जाता है । अच्छी तरद चलने- फिरने योग्य होने में उसे कई साल लग जाते है । भ्रपना गुजारा




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