सामाजिक पाषण | Samajik Pashan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Samajik Pashan by डॉ॰ बूलचन्द - Dr. Boolachand

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ॰ बूलचन्द - Dr. Boolachand

Add Infomation AboutDr. Boolachand

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
१० सामाजिक पाषण क्लोप्स की गृफा मे कारावासित यूनानी मी प्रशांत से निवास करते थे जब तक उनकी भक्षण होने की बारी नहीं आती थी । यह तर्क करना कि मनुष्य अपने आपको, कुछ प्राप्त किये बिना ही दे देता है, बिलकुल हास्यास्पद और अविचारणीय है । उपरोक्त क्रिया अवंधानिक और अनुचित है। केवल इस कारण कि जो इस क्रिया को करता है उसकी बुद्धि ठीक नहीं हो सकती | एक समस्त राष्ट के लिए इस प्रकार की धारणा करने का अथं यह्‌ है कि उन्मत्तोका राष्ट अनमानिक किया जाय, और उन्मत्तता से अधिकार प्रदान नहीं कियें जा सकते । यदि यह मान भी लिया जाय कि कोई व्यक्ति अपने आपको अन्यक्रामित कर सकता है, तो वह अपने बच्चों को तो अन्यक्रामित नहीं कर सकता । वे जन्मत: स्वतंत्र मनुष्य होते ह, उनका स्वातंत्य उनका निजी है और सिवाय उनके किसी अन्य को उसे अन्य- क्रामित करने का अधिकार नहीं है । उनके विवेकावस्था को प्राप्त होने से पहिले पिता उनके परिरक्षण ओर कल्याण के हतु उनके नाम से रातं निदिष्ट कर सकता है परंतु उन्हें अटल रूप में एवं बिना शतं के किसी की अधीनता में नहीं दे सकता, क्योकि इस प्रकार का देना प्रकृति के प्रयोजन के प्रतिकूर होगा ओौर पितृत्व के अधिकारों का अतिरेक होगा । इसलिए स्वेच्छाचारी दासन को न्यायसंगत बनने के किए यह्‌ आव- दयक है कि प्रत्येक पीठीमं लोग इसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का अधिकार प्रयुक्त करे । परंतु उस दरा मे शासन स्वेच्छाचारी रहेगा ही नहीं । अपने स्वातंत्र्य के परित्याजन का अथं यह्‌ होता हे कि व्यक्ति अपन मनुष्यत्व ओर मानुषिक अधिकारों ओर कतेव्यो का परित्याजन कररहादहै। जो प्रत्येक वस्तु का परित्याजन करता है, उस व्यक्ति के लिए कोई क्षतिपूति ही सम्भवनहीं है) इस प्रकार का परित्याजन मनुष्य कौ प्रकृति के असंगत है, क्योकि प्रेरणा से समस्त स्वतंत्रता को विल्ग करने का अथं यह्‌ है कि क्रियाओं को नीतिविहीन बना दिया जाय । संक्षेप मे, एसी रूढि जौ एक ओर सम्पूण शक्ति ओर दूसरी ओर असीमित अनुशासन को निदिष्ट करती है, निरथेक ओौर असंगत होती है । क्या यह्‌ स्पष्ट नहीं है कि किसी ऐसे मनुष्य के प्रति जिससे हमें सब कुछ लेने का अधिकार है, हमारे कोई कर्तव्य नहीं होते, और क्या केवल यही एक दशा जिसमें न समानता और न आदान-प्रदान निहित है उस क्रिया को प्रवृत्तिह्दीन नहीं बना देती ? क्योंकि मेरे दास का मेरे प्रति क्या अधिकार हो सकता है, जब सब कुछ जो उसके पास है वह मेरा ही हो । उससे समस्त अधिकार यथा में मेरे ही होने के कारण, मेरे अधिकार मेरे अपने ही विरुद्ध एक निरथेक-सा वाक्यांश हो जाता है ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now