सार्थवाह | Sarthavah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका (साथवाह के रूप में श्री मोती चन्द्रजी ने साठवृभाषा हिन्दी को अथ्यन्त श्लाघनीय वस्तु भेंट को है । इस विषय का अध्ययन उनकी मौलिक कल्पना है। शङ्गरेजी अथवा झन्य किपी भाषा में भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित इस मदस्वपूण विषय पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया । निर्वंदेद मोती घन्द्जी की लिखी हुई पदली पुस्तक “भारतीय वेशभूषा ोर प्रस्तुत 'साथवाद' पुस्तक को पढ़ने के लिये ही यदि कोई हिन्दी सीखेतो भी उसका परिश्रम सफल होगा । पुस्तक का विषय हे--प्राचीन भारतीय ब्यापारी, उनकी यात्राएँ, कय विक्रय की वस्तुए” व्यापार के नियमन, भौर पथ-पद्धति । इस सम्बन्ध की जो सामग्री वेदिक युग से खेकर 99वीं शती तक के भारतीय सादित्य (संस्कृत, पाल्ञी, प्राकृत भादि म) यूनानी झोर रोप्रदेशोय भोगोखिक उत्त, चीनी यात्रियों के इृत्तान्त, एवं भारतीय कला में उपलब्ध है, उपके झनेक बिखरे हुए परमाणुओं को जोइकर लेखक ने साथवाह रूपी भव्य सुमेद का निर्माण किया दै जिसकी ऊँची चोटी पर भारतीय सांस्कृतिक ज्ञान का भरखर सूयं तपता हुआ दिखाई पढ़ता है और उसकी प्रस्फुटित किरण से सेकड़ों नए तथ्य प्रकाशित होकर पाठक के दृष्टि थ में भर जाते हैं। भारतीय संस्कृति का जो सर्वगीण इतिष्टास स्वथं देशवातियं द्वारा भगल्ते पचास वर्षो में लिखा जायगा उसकी सच्ची भाधार- शिज्ञा मोतोचन्द्रजी ने रख दी दै। इस ग्रन्थ को पढ़कर सम में शाता है कि ऐतिहासिक सामग्री के रत्न कहाँ छिपे हे, नेक गुप्त-प्रकट खानों से उन्हें प्राप्त करने के लिये भारत के नवोदित ऐतिहासिक को कोन-सा सिद्दाध्जन लगाना चाहिए; झोर उस चशुष्मत्ता से प्राप्त पुष्कल् सामग्री को लेखन की क्षमता से किस प्रकार मृतं रूप दिया जा सकता है। पुस्तक पदते-पदते पश्चिमी ररनाकर भोर पूर्वी मदोदधि के उसपारके देशों ओर द्वीपौ के साथ भारत के सम्बन्धी के कितने दो चित्र सामने झाने लगते हैं। दण्डी के दूश मार चरित में ताम्रबिप्ति के पास झाए हुए एक यूनानी पोतर के नाविक-नायक ( कप्तान ) रामेषु का उरक्तेखदहे। कोम जानता था कि यष्ट 'रामेषु” सीरिया की भाषा का शब्द हे जिसका अथं है “सुन्दर इंसा' ( राम = सुन्दर; इषु - ईसा ) ? ईसाई घमं के प्रचारं के कारण यह नाम उक्त समय यवन नाविको में चल चुका था । गुप्काल में भारत की नोसेना के बेदे कुशल चेमसेयथे। रलनाणंवां की मेखल्ञा से युक्त भारतभूमि षी रक्ता्नौर धिदेशी व्यापार दोनो मेंवेपटुथे। अतएव दश्डीने लिखा है कि बहुत सी नावों से घिरे हुए (मद्गुः नामक भारतीय पोत ( मदगु = सया मारनेवाला समुद्री परी, शङ्गरेजी सी-गल्ञ ; मै यवन-पोत को घेर कर धावा बोक्ल दिया प° २३६-४०)। 'वाथेवाइ' शब्द में स्वयं उसके अथ कीष्याख्याहे। अमरकोषे टीकाकार कीर स्वामी ने लिखा हे--'जो पूजी द्वारा व्यापार करनेवाले पाम्थों का धगुश्ना हो बह साथवाद हे, ( श्वार्थान्‌ सघनानू सरतो वा पान्थान्‌ वहति साथवाह, भमर ६।६।७८ ) | साधका




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