चेहरों से घिरा दर्पण | Cheharao Se Ghira Darpan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के प्रकाश से दीप्त था, पर दीपाली की दीप्ति तो जैसे घूमिल हो उठी थी । मादा थी कि माँ स्वयं आकर उससे कुछ पूछेंगी, पर माँ तो वहाँ की वहीं स्थिर बैठी है । देखकर दीपाली को काठ मार गया 1 पास माकर माँ !” माँ एकाएक तीव्रता से काँपी -- हाँ, मोह, दोषू है । हाँ बेटी, पार्टी देने को कहा है तो मना मत कर देना । इज्जत की बात है । पर मुझसे इस वारे में मव कुछ न पूछना 1” दीपाली भर्रायी-सी बोली -- “बस, एक बात बता दोमाँ।”” जादू से बंधी-सी माँ वहीं वैठ गयी । बोली--“जानती हूँ, क्या पुछेगी । यही न, कि मैं तेरी इस सोनिया को वैसा प्यार क्यों नहीं करती, जैसा सईदा और टिंग लिंग को करती थी ।”” दीपाली ने कहा--“हाँ, माँ, यही पूछती हूँ माँ जैसे कहीं बहुत दूर से वोल रही सईदा. को कितना प्यार करती थी, कितना । ना-ना, तु नहीं जानती, कोई नहीं जानता, मैं भी नहीं जानती । मोह ! प्यार करना कितना वुरा है ?” सहसा द्वीपाली ने देखा कि माँ का रक्तहीन चेहरा किसी मान्तरिक संघर्ष से विकृत होता जा रहा है, पर कह!नी की उत्मुकता ने उसे जड़ वनाये रखा । माँ कहती रही -“हाँ, प्यार करना कितना वुरा है, यह मैंने अभी सीखा है । सईदा को कितना प्यार किया, उसकी शादी को मैंने वेटी की शादी करके मनाया, पर सईदा से सईदा खाँ बनते ही वह कया हो गयी 1” “कया हो गयी माँ ? ”” तू नहीं जानती ?” माँ. तीव्रता से बोली--“इस खान की गोली ने ट्वी तेरे पिता के प्राण लिये थे ।” दीपाली जैसे चीख उठी-- माँ !” फिर कई क्षण कमरे में मौत जैसा सन्नाटा छाया रहा । उन क्ष्णों में माँ ने अपने तन-मन को फिर से सम्हाल लिए । भरयि, पर हृढ़ स्वर में बोली-- “जाने दे सईवा को । उन लोगों से हम लड़ते- भगड़ते भी थे । पर टिंग लिंग के लोगों से तो हमारा कोई झगड़ा ही बहीं था, कमी मनमुटाव विष्णणु प्रभाकर १३




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