सत्यामृत दृष्टि काण्ड | Satyamrit Drishti Kand

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Satyamrit Drishti Kand by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सत्य-दृष्टि | ९ त 1 थमन ७ नता म किसी को महान्‌ अवस्य समझा जाता पर उसमें किसी को खुश करके स्वाथ सिद्ध करने की लालसा नहीं होती । दीनता परीक्षक बनने मं बाधा नहीं डालती: सिफ॑ उसके प्रगट करने में बाधा डालती हे । इस प्रकार दोनों में काफी अन्तर है । हां यदद हो सकता है कि एक मनुष्य दीन भी हो और चापढूस भी हो । पर इससे तो इन दो दुग्ुणों की निर्विरोधता कौ ५1 ही समझना चाडिये--एकता नहीं | झूका-पर बड़े बड़े झाखकारों की, महापुरुषों की परीक्षा की बाते करना छोटे मह बडी बात है । अगर मान छ्य जाय कि आजकल: ऐसे विद्वान हैं जो पहिले के शाख्रकारों से भी बड़े हैं तो भी हर एक आदमी तो बड़ा नहीं हो सकता वह शाखं की या गुरु आदि की परीक्षा केसे करे ! समाधन-जिसकी हम परीक्षा करते हैं उससे हमें बडा होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । परीक्षा दो तरह की होती है -एक वस्तु पर्षा दूसरी कतेख पराक्षा । तस्तु पराक्षा म वस्तु के गुणागुण का द्यी विचार रहता है, किसी के कतेत्व-अदातृत्व का विचार नहीं रहता । इस परीक्षा मे अपने गुणो के साथ वस्तु के गुणो की तुछना नहीं करना पड़ती । सोना, चांदी, हीरा आदि की परीक्षा करते समय यह तुढना का विषय नहीं है कि परीक्षक गणौ में सोने, चौँदी आदि से वडा है या नहीं ? इसल्यि इम परीक्षा मे परीक्ष्य--परीक्षक के बड़े छोटे का सवाल ही नहीं हैं | द है की कर्तत्व-परीक्षा में ऐसी तुलना हो सकती हैं । पर्‌ कनत्व-- परीक्षा भी दो तरह कौ होती है-एक मगर परीक्षा दूसरी अमग्र परीक्षा । ग्रपरीक्षा वह हैं जिसमें पर्राक्षक के कर्तत्व में पर्रक्ष्य का कतेत्व डब जाता है-छोटा रहता है । जेसे एक अध्यापक विद्यार्थी की परीक्षा लेता है. तो अध्यापक के कत्व मे विद्यार्थी का कतृत्व | ४9३ स स, मम्नहो जाताहै डव जाता हे । अम्र परीक्षा में यह बात नहीं होती उसमें पर्रक्षक का कर्तृत्व परीक्ष्य से छोटा रहता है फिर भी परीक्षकता में हानि नहीं होती । जैसे १ स क किक ९ द 4 (9 रसोई ननिवाढे ने रसोइ स्वादिष्ट बनाइ कि नहीं इसकी परीक्षा वह भी कर सकता है जो रसोई बनाने के कार्य में बिलकुल अजान हो । इसी प्रकार कोई स्वयं तो गदभराग में ही क्यों न गाता हो पर अच्छे से अच्छे गायक की परीक्षा कर सकता है, स्वयं नाचना न जानकर भी नृत्यकार की परीक्षा कर सकता है, यहां तक कि रोगी वैद्यक का बिल्कुल ज्ञान न रखते दए भी वैद्य की परीक्षा कर सकता है | इसका यह मतलब नहीं है [कि अमग्न-परीक्ष में योग्यता की बिल्कुल आवश्यकता नहीं हैं, उसमें कतृत्व मढे ही न हो पर अनुभव करने की योग्यता अवदय हो | जैसे-रोगी वैद्यक भ्टे ही न जाने पर चिकित्सा से आराम हो रहा हैं या नदी । इसी {~ भ इतना अनभव तो उसमें होना ही चाहिये प्रकार अन्य परीक्षाओं की भी बात है । इस प्रकार अगर हमें शाख्रों की या झाख- कारों की या गुरुओं की परीक्षा करना हो ते! यह आवश्यक नहीं है कि हम उनसे भी बड़े शाख- कार या विद्वान हो | पर यह जानने की आवश्य- कता अवदय है किं उनके उप्देदादि जीवन मे कितनी शान्ति पदा करते हैँ, व कितने बुद्धि सगत हैं आदि | इसी तरह से हम घर्मो की, शाखो की मैर्‌ राख्रकारो कौ परीक्षा कर सक्ते है|




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