सम्यक्त्व पराक्रम भाग 3 | Samyaktva Prakram Bhag 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
258
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बाईसर्वां बोल-१३
बन्धन भी शिथिल हो जाते हँ ओर दीघंकाल की स्थिति
वाले कर्म भो अत्पकालीन स्थिति वाले बन जाते हैं ।
टीकाकर का कथन है कि देव, मनुष्य और तिरयंच
की दीधे स्थिति के सिवाय दूसरी समस्त दीघ स्थिति अशुभ
है । देवाय; मनुष्याय ओौर तिय॑चायु कर्म को छोडकर समस्त
कर्मो की दीघं स्थिति अशुभ ही म।नी गई है । इस कयन
के लिए प्रमाण देते हुए टीकाकार कहते हैं -
सव्वाँसि पि थिईश्रो, सुभसुभाण पि होन्ति श्रसुभाश्रो ।
सणस्सा त्िरच्छदेवाउयं च, मोत्तूण सेसाओ ॥
अर्थात् - दीघकाल की समस्त स्थितियाँ अशुभ हैं ।
केवल मनुष्य, देव और तिरयंच के आयुष्य की दीघेकालीन
स्थिति ही अशुभ नहीं है।
टीकाकार देव, मनुष्य और तियंच के शुभ आयुष्य
को छोड़कर और सब स्थिति अशुभ मे गिनते ह । अतएव
यहा दीर्घकालीन स्थिति को अत्पकालीन करने का जो
कथन किया गया है, सो यहू कथन अशुभ स्थिति की अपेक्षा
समभना चाहिए ।
गुरु कहते हैं - हे शिष्य ! अनुप्रेक्षा से शुभ अध्यवसाय
होता है । सूत्राथं का चिन्तन करने से ऐसा शुभ अध्यवसाय
होता है कि वह आयुष्य कर्म के सिवाय सात कर्मों के गाढे
चन्धन को ढीला कर देता है । इसी प्रकार सात कर्मों को
जो प्रकृति लम्बे समय की स्थिति वाली होती है उसे अल्प-
काल की स्थित्ति वाली बना देती है । अर्थात दोधघंकाल में
भोगने योग्य कर्मो को अल्पकाल मे भोगने योग्यं चना देती
दै । इसके अत्तिरिक्त अनुप्रक्षा से तीन्र अनुभाग भी मन्द
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