सम्यक्त्व पराक्रम भाग 3 | Samyaktva Prakram Bhag 3

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Samyaktva Prakram Bhag 3 by जवाहरलालजी महाराज - Jawaharlalji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बाईसर्वां बोल-१३ बन्धन भी शिथिल हो जाते हँ ओर दीघंकाल की स्थिति वाले कर्म भो अत्पकालीन स्थिति वाले बन जाते हैं । टीकाकर का कथन है कि देव, मनुष्य और तिरयंच की दीधे स्थिति के सिवाय दूसरी समस्त दीघ स्थिति अशुभ है । देवाय; मनुष्याय ओौर तिय॑चायु कर्म को छोडकर समस्त कर्मो की दीघं स्थिति अशुभ ही म।नी गई है । इस कयन के लिए प्रमाण देते हुए टीकाकार कहते हैं - सव्वाँसि पि थिईश्रो, सुभसुभाण पि होन्ति श्रसुभाश्रो । सणस्सा त्िरच्छदेवाउयं च, मोत्तूण सेसाओ ॥ अर्थात्‌ - दीघकाल की समस्त स्थितियाँ अशुभ हैं । केवल मनुष्य, देव और तिरयंच के आयुष्य की दीघेकालीन स्थिति ही अशुभ नहीं है। टीकाकार देव, मनुष्य और तियंच के शुभ आयुष्य को छोड़कर और सब स्थिति अशुभ मे गिनते ह । अतएव यहा दीर्घकालीन स्थिति को अत्पकालीन करने का जो कथन किया गया है, सो यहू कथन अशुभ स्थिति की अपेक्षा समभना चाहिए । गुरु कहते हैं - हे शिष्य ! अनुप्रेक्षा से शुभ अध्यवसाय होता है । सूत्राथं का चिन्तन करने से ऐसा शुभ अध्यवसाय होता है कि वह आयुष्य कर्म के सिवाय सात कर्मों के गाढे चन्धन को ढीला कर देता है । इसी प्रकार सात कर्मों को जो प्रकृति लम्बे समय की स्थिति वाली होती है उसे अल्प- काल की स्थित्ति वाली बना देती है । अर्थात दोधघंकाल में भोगने योग्य कर्मो को अल्पकाल मे भोगने योग्यं चना देती दै । इसके अत्तिरिक्त अनुप्रक्षा से तीन्र अनुभाग भी मन्द




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