गारिब | Garib

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Garib by भगवत जैन - Bhagvat Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गरीब [ १३] एस ल०--( अपनी ही घुन में ) हाँ, और यह ध्यान रहे--पत्थर के अक्षर दो इंची से कस मोटे न हों । ताकि सव श्रंसानी से पद्‌ सकें । समभे, दो इंच मोटे । सब--( सिर नवाकर ) जी, सवा दो! केसी बात कह रहे हैं आप ? (जाते हैं ) त्रिलो०--( प्रवेश कर, स्वतः ) यहाँ वष-गॉठ मन रही है । उधर मेरे नौनिहाल की जीवन-गाँठ खुली जा रही दै । विधाता ! क्या तय किया है तूने ? यातो दरिद्रतां की उवाली से अब बचाले। या एक दम जलाद्‌, तिल-तिल जलाने वाले ॥ ( स्वगत वैरो की श्रोर इशारा करते हुए ) बढ़ो, आगे बदो, वैभव के द्वार तक पहुँचो । सुनानी है वहाँ करुखा जनक दुर्भाग्य की गाथा 1 सुकाना स्वाथ के चरों में अपना श्राज है माथा ॥। जिया ! तू क्यों काँप रही है ? वाणी तू क्‍यों मूक दो रही है १ भिमक, संकोच को छोड, अभय होकर भीख माँग । विधाता ने यदीलिक्ा दहै इस एूटे.मुकदर में । दिया था जन्म इसही वाध्ते धन-दीन के घर में ॥ ल०-(द्पंके साथ) कौनदै? त्रिलो०--( दीनता पूवक ) एक रारीब, बदनसीब । ल०--( तेज़ी से ) किस लिए श्राया है यहाँ ? किसने श्राने दिया तुमे ? त्रिलो०-( गिडगिडाते हुए ) दया की भीख मांगने श्राया हूं । गरीब--पदरेदासों ने रदमकर श्राने दिया है सेठजी ! नाराज न द्रूजिषए ! मुसीबत से घिरा हूँ, तंग दस्ती का सताया हूँ । मदद हो जाय कुछ इस ही लिए चरणों में श्चाया ह ॥




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