चंद वरदाई | Chand Vardayi

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Chand Vardayi by विपिन बिहारी त्रिवेदी - Vipin Bihari Trivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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.जीवन ७ चौहान-नरेन्द्र हँस दिये । महाराज कवि के पानों की छग्गर लेकर उसके खवास बन चुके ये } चंद श्रपने दलबल सहित राजा जयचंद के द्वारपाल के सामने जा उपस्थित हुआ । द्वारपालों के नायक खघुवंशी दैजम कमार को ्रपनौ वातचीत से प्रसन्न करके उसने छपने शाने का संदेश महाराज जयचंद के पास भिजवा दिया जयचंद ने कवि की योग्यता की परीक्षा लेने के लिये श्रपने द्सौंधी को मेजा,; कवि ने अपनी श्रदश्य-वर्णन- शक्ति द्वारा जयचंद के दुस्वार तथा सारे सरदारों के नाम-ग्राम झ्रादि का वर्णन करके उसे प्रसन्न कर लिया । दर्सौंधी द्वारा इस विलक्षण प्रतिभा-संप् कवि का समाचार पाकर पंग-नरेश ने उसे श्रपने पास बुलवा लिया । चंद नेपर्हुचते ही महाराज को आशीर्वाद दिया श्रौर उनकी वियदावलि यह कहते हुए समास की कि “श्रकेले प्रथ्वीराज ही आपको कुछ नहीं समकते ।* भरी सभा में जयचंद यह सुन कर क्रोपित दो उटा और बोला कि जंगलराव ( भील,; एथ्वीरान) के राज्य में रदकर भी बरदिया ( वैल, वरदायी) क्यों दुबला दो गया १ चंद ने इससे भी चुभनेवाली कट्धूक्ति में कहा कि पृथ्वीराज के शरश ने सारी घास खा डाली इसी से वरदया दुब्रला हो गया | इस वार्तालाप में श्र॑ततः महाराज जयचंद दध गये श्रौर उन्होंने दूसरी चर्चा छेड़ दी । कथि ने इन्हीं बातों के सिलसिले में उन्द वत्तलाया किएक वार संभरी-नरेश ने किस प्रकार मोर्चा लेकर गोरी शाह के कन्नौज झाक्रमण करने का प्रयत्न मिष्फल किया या ] पृथ्वीराज के पराक्रम की बात फिर बढ़ती देखकर जयचंद ने पूछा कि श्राख़िर तुम्हारे नरेश के पास कितने शूरमा आर कितने देश ई तथा उनकी सादश्यता कैसी है १? सब बतला रक चंद ने अपने पानधार से प्रथ्वीराज की साइश्यता की, जयचंद श्र छुदूमवेशी चौहान परस्पर घूरने लगे, परन्तु जयन्ंद्‌ ने सोचा कि चाहे जो कुछ भी हो पृथ्वीराज खवास नहीं बन सकते, फिर चंद ने प्रसंग चला कर कहा कि इस समय प्रथ्वीराज ने रीति-नीति से अपना वल-वैमव बढाया है, परन्तु कलिकाल में आपका यज्ञ. करना नीतिसंगत नहीं था । इसी श्रवसर पर जयनचंद्‌ की द्राज्ञा से कर्नाटकी दासी कवि को पान देने के लिये श्राई और छुदूमवेशी खवास प्रथ्वीराज को पहचान कर उसने लज्जा से घूंघर खींच लिया । इस भाँति श्रपनी वात खुलती देख चंद ने संकेत से उसका श्रबयु 'ठन हृटवा कर परिस्थिति सम्दाली। महाराज जयचंद ने नगर के पश्चिम प्रान्त में कवि को सत्कार-पूर्वक ठददराया और उसके सारे दलबल के लिये भोजन की उचित व्यवस्था की | पंग की सद्दारानी ने भी छः भाषाओं में व्युत्पन्न कवि के लिये श्रलग से एक श्रच्छी भेंट भेजी, ढेरों पर आकर लोग यथास्थान हो गये । प्रथ्वीराज गद्दी पर बेठ गये श्रौर नियमानुसार दरबार लग गया | सन्देद तो हो ही चुका था । गुप्तचर लगे हुए थे, यह समाचार जयचंद को मिला । श्रपने मंत्री रावण की सलाद से जयचंद चंद कवि की विदाई हेतु एक लम्बी चौड़ी मेंट का प्रवन्ध कर उसके डेरों पर गये । कान्यकुब्जेश्वर का श्रागमन सुन्‌ कर दरवार का रूप पलट गया और पृथ्वीराज पुनः पानघार खवास हो गये | बातचीत होने लगी, चंद मे खवास से जयचंद को पान देने के लिये कहा, खवास रूपी _ पृथ्वीराज ने चायें दाथ से पान देते सेमय जयचंद की हथेली में अपना नख इतने ज़ोर से खुभाया कि रक्त फी धारा य चली; श्रय सन्देद स्पष्ट हो झुका था | जयचंद नें अपने




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