गो मट सार जीवखण्ड भाग 3 | Gomat Saar Jivkand Bhag 3
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
376
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गोस्मटसार जीवका ण्डसू १७
इस ग्रन्थका दूसरा नाम पचसग्रह् भी है ! क्योकि इसमे महाकरमप्रामृतके सिद्धान्तसम्बन्धी
जीवस्थान क्षुदरवन्थ बन्धस्वामो वेदनाखण्ड वशंणाखण्ड इन पाचि विषयोका वंन है । सूलग्रत्थ
प्रात में लिखा गया है। यद्यपि मूल लेखक श्रोयुत नेमिचन्द्र सि चक्रवर्ती ही है, तथापि कही-
कही पर कोई-कोई गाथा माघधवचन्द्र बैविद्यदेवने भी लिखी है, यह टीकामे दी हुई गाथाओकी
उत्यानिकाके देखनेसे मालूम होती है। माधवचन्द्र चैविद्यदेव श्री नेमिचन्द्र सि चक्रवर्तीकि प्रधान
शिष्योमेसे एक थे । मालूम होता है कि तानविद्याओके अधिपति होनेके कारण हो आपको त्रैविद्ब-
देवका पद मिला होगा 1 इससे पाठकोको यह भो अन्दाज कर लेता चाहिये कि श्रो नेमिचन्द्र सि
चक्रवर्तीकी विद्वत्ता कितनी असाधारण थी । -
इस ग्रत्थराजके ऊपर अभी तक चार टीका लिखी गई है। जिनमें सबसे पहुले एक कर्नाटक
वृत्ति वती है । उसके र्वयिता ग्रत्थकर्ताकि अन्यतम शिष्य श्रीचामुण्डराय हैं । इसी टीकाके-आधार-
पर एक सस्कृत टीका वी है, जिसके निर्माता केशववर्णी हैं, और यहू टीका भी दसो सामसे प्रसिद्ध
है । दूसरी सस्कृत टीका श्रीमदभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी बनाई हुई है जो कि 'मदप्रबोधिसी'
नामसे प्रसिद्ध है ! उपर्युक्त दोनो टीकाओके आधारसे श्रीमद्विद्र टोडरमल्लजीने 'सम्यगज्ञानच द्रिका”
नामकी हिन्दी टीवा बनाई है । उक्त कर्नाटक वृत्तिके सिवाय तीनो टीकाओके आधारपर यहं सक्षिप्त
वालवोधिनो टीका लिखी है । 'मदप्रदोधिनी' हमको पूर्ण नहीं मिछ सकी इसलिए जहाँतक मिल
सकी वर्हािक तीनो टीकामोके मधारसे ओर अगि 'केशववर्णी' तथा सम्यग््ञानचद्रिकाके आधारसे
ही हमने इसको लिखा है!
इस ग्रन्थक दो भाग हैं--एक जीवकाण्ड दूसरा कमंकाण्ड । जीवकाण्डमे जीवंकी अनेक अशुद्ध
अवस्थामोंका या भावोका वर्णन है । कर्मेकाण्डमे कर्मोकी अनेक्र अवस्थाओका वर्णन है । कर्मकाण्ड-
की सक्षिप्त हिन्दी टीका श्रीयुत प मनोहरलालजों शास्त्री द्वारा सम्पादित इसी ग्रन्थमाकके द्वारा
पहले प्रकाशित हो चुको है। जोवकाण्ड सक्षिप्त हिन्दी टीका मभीतक नहीं हुई थी । अत्तएद
भाज विद्वानोंके समक्ष उसीके उपस्थित करनेका मैने साहस किया है ।
जिस समय श्रीयुत प्रात रमरणोय न्यायवाचस्पति स्थाद्वादवारिधि वादिगजकेसरी गुरुवर्य
प गोपालदासजीके चरणोमें में विद्याव्ययन करता था उसी समय गुरुको भाज्ञातुसार इसके लिखने-
का मेने प्रारम्भ किया था | यद्यपि इसके लिल्नेमे प्रमाद या अज्ञानवश मुझसे कितनी हो अशुद्धियाँ
रह गई होगी, तयापि सज्जन पाठकके गुणग्रादौ स्वभाषपर दृष्टि देनेसे इस विषयमे मुझें अपने
उपहामका विख्कुल भय नही होता । ग्रत्थके पुर्ण करनेमे मे सवथा ममम्थे था, तथापि किस भो
तरह जो में इसको पूर्ण कर सका हूं उसका कारण केवल गुरुप्रसाद है ! अतएव इस कृतज्तताके
निदर्थनायं गुदुके चरणोका विरतन चितवन करना ही श्रेय है ।
_... माचीन टीकाएँ समुद्समान गम्भीर है--सहसा उनका कोई अवगाहन चही कर सकता ।
जा नवगाहन नहीं कर सकते उनके लिए कुल्याके समान इस क्षुद् टोकाका निर्माण किया है ।
जाया है फि इसके भम्याससे प्राचोन सिद्धान्त तितीपुओको अवद्य कुछ सरलता होगी । पाठकोंसे
यह निवेदन है किं यदि दम इतिमे कुर नार भाग मालूम हो तो उसे मेरे गुरुका समझ
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