गो मट सार जीवखण्ड भाग 3 | Gomat Saar Jivkand Bhag 3

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Gomat Saar Jivkand Bhag 3 by गोपालदास वरैया - Gopaldas Varaiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गोस्मटसार जीवका ण्डसू १७ इस ग्रन्थका दूसरा नाम पचसग्रह्‌ भी है ! क्योकि इसमे महाकरमप्रामृतके सिद्धान्तसम्बन्धी जीवस्थान क्षुदरवन्थ बन्धस्वामो वेदनाखण्ड वशंणाखण्ड इन पाचि विषयोका वंन है । सूलग्रत्थ प्रात में लिखा गया है। यद्यपि मूल लेखक श्रोयुत नेमिचन्द्र सि चक्रवर्ती ही है, तथापि कही- कही पर कोई-कोई गाथा माघधवचन्द्र बैविद्यदेवने भी लिखी है, यह टीकामे दी हुई गाथाओकी उत्यानिकाके देखनेसे मालूम होती है। माधवचन्द्र चैविद्यदेव श्री नेमिचन्द्र सि चक्रवर्तीकि प्रधान शिष्योमेसे एक थे । मालूम होता है कि तानविद्याओके अधिपति होनेके कारण हो आपको त्रैविद्ब- देवका पद मिला होगा 1 इससे पाठकोको यह भो अन्दाज कर लेता चाहिये कि श्रो नेमिचन्द्र सि चक्रवर्तीकी विद्वत्ता कितनी असाधारण थी । - इस ग्रत्थराजके ऊपर अभी तक चार टीका लिखी गई है। जिनमें सबसे पहुले एक कर्नाटक वृत्ति वती है । उसके र्वयिता ग्रत्थकर्ताकि अन्यतम शिष्य श्रीचामुण्डराय हैं । इसी टीकाके-आधार- पर एक सस्कृत टीका वी है, जिसके निर्माता केशववर्णी हैं, और यहू टीका भी दसो सामसे प्रसिद्ध है । दूसरी सस्कृत टीका श्रीमदभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी बनाई हुई है जो कि 'मदप्रबोधिसी' नामसे प्रसिद्ध है ! उपर्युक्त दोनो टीकाओके आधारसे श्रीमद्विद्र टोडरमल्लजीने 'सम्यगज्ञानच द्रिका” नामकी हिन्दी टीवा बनाई है । उक्त कर्नाटक वृत्तिके सिवाय तीनो टीकाओके आधारपर यहं सक्षिप्त वालवोधिनो टीका लिखी है । 'मदप्रदोधिनी' हमको पूर्ण नहीं मिछ सकी इसलिए जहाँतक मिल सकी वर्हािक तीनो टीकामोके मधारसे ओर अगि 'केशववर्णी' तथा सम्यग््ञानचद्रिकाके आधारसे ही हमने इसको लिखा है! इस ग्रन्थक दो भाग हैं--एक जीवकाण्ड दूसरा कमंकाण्ड । जीवकाण्डमे जीवंकी अनेक अशुद्ध अवस्थामोंका या भावोका वर्णन है । कर्मेकाण्डमे कर्मोकी अनेक्र अवस्थाओका वर्णन है । कर्मकाण्ड- की सक्षिप्त हिन्दी टीका श्रीयुत प मनोहरलालजों शास्त्री द्वारा सम्पादित इसी ग्रन्थमाकके द्वारा पहले प्रकाशित हो चुको है। जोवकाण्ड सक्षिप्त हिन्दी टीका मभीतक नहीं हुई थी । अत्तएद भाज विद्वानोंके समक्ष उसीके उपस्थित करनेका मैने साहस किया है । जिस समय श्रीयुत प्रात रमरणोय न्यायवाचस्पति स्थाद्वादवारिधि वादिगजकेसरी गुरुवर्य प गोपालदासजीके चरणोमें में विद्याव्ययन करता था उसी समय गुरुको भाज्ञातुसार इसके लिखने- का मेने प्रारम्भ किया था | यद्यपि इसके लिल्नेमे प्रमाद या अज्ञानवश मुझसे कितनी हो अशुद्धियाँ रह गई होगी, तयापि सज्जन पाठकके गुणग्रादौ स्वभाषपर दृष्टि देनेसे इस विषयमे मुझें अपने उपहामका विख्कुल भय नही होता । ग्रत्थके पुर्ण करनेमे मे सवथा ममम्थे था, तथापि किस भो तरह जो में इसको पूर्ण कर सका हूं उसका कारण केवल गुरुप्रसाद है ! अतएव इस कृतज्तताके निदर्थनायं गुदुके चरणोका विरतन चितवन करना ही श्रेय है । _... माचीन टीकाएँ समुद्समान गम्भीर है--सहसा उनका कोई अवगाहन चही कर सकता । जा नवगाहन नहीं कर सकते उनके लिए कुल्याके समान इस क्षुद् टोकाका निर्माण किया है । जाया है फि इसके भम्याससे प्राचोन सिद्धान्त तितीपुओको अवद्य कुछ सरलता होगी । पाठकोंसे यह निवेदन है किं यदि दम इतिमे कुर नार भाग मालूम हो तो उसे मेरे गुरुका समझ




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