मुद्रा | Mudra

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Mudra by अमरनाथ अग्रवाल - Amarnath Agrawalडी. एच. राबर्टसन - D. H. Rabartsan

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अमरनाथ अग्रवाल - Amarnath Agrawal

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डी. एच. राबर्टसन - D. H. Rabartsan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के रूप में मनुष्य की न्रय-दयक्ति का साधारणीकरण कर दिया हूँ समाज के प्रति वह अपनी स्वत्व-भावना जिस रूप में ठीक समझे उस रूप में व्यक्त कर सकता हू । यदि मुद्रा न होती तो मनुष्य कों उसके काय॑ के फलस्वरूप वस्तूओं में ही मजदूरी दी जाती और फिर ठौर नियंत्रण होता अथवा उनका उपभोग करने ती दोनों ही अवस्थाओं में अपव्यय अवदयस्भावी था पहली अवस्था में तो. लोग अपनी आवध्यकताओं की अपेक्षा कुछ अन्य वस्तएँ भर सेवाएँ अधिक उपलब्ध करने के लिए उत्साहित होते तथा कछ घन्य वस्तुएँ और सेवाएँ कम पाने पर विवद्य होते और दसरी अवस्था में हर प्रकार से अपव्यय करने का प्रलॉभन पाते मुद्रा-व्यवस्था की उपस्थिति से यह जानने में सुविधा होती है कि लोगों की क्या. और कितनी आवदयकताएँ हैं । इससे यह भी श्रासानी से मालून हो जाता है कि क्या और कितनी सात्रा में उत्पादन करना है । इस प्रकार समाज को अपनी सीसित उत्पादन- शक्ति का सर्वोत्तम उपयोग करने में सुविधा होती हू । मुद्रा-व्यवस्था समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए तृप्ति या आनन्द के जितने साधन उसकी पहुँच के भीतर हैं उनके अतृरूप अधिक-से-अधिक यथायथ॑ आनन्द-उपभोग या तृप्ति की संभावना उपस्यित करती है--दूसरे दाब्दों में उसे अवसर सिछता है कि न तों बस की सवारी में ही वह नन्द-विभोर हो जाय और व चार्ली चैपलिन के परिहास में अपने आप /को भूल बँठ । डी ञ नि ना पथ | न की सर्वाधिक तृप्ति और आनन्द की उपलब्धि के इस अवसर से कोई व्यक्ति कहाँ तक लाभ उठा सकता है यह उसकी उस विवेक- शक्ति पर निर्भर करता है जो पेनी या शिलिंग के विभिन्‍न रूपों से खचें करने पर संभावित तृप्ति की सापेक्ष मात्राओं को आँक सकें तथा उस निणंय पर तदनुरूप आचरण कर सके । कुछ व्यक्ति अपनी आय से सर्वाधिक लाभ उठाने के अवसर का पणं उपयोग करते




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