भावपाहुड़ प्रवचन | Bhavpahud Pravachan

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Bhavpahud Pravachan by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छन्द १६७: भ कषायसे तपश्चरण करके नवग्रैवेयक 'तक उत्पन्न होते है । मगर यहां सम्यण्हष्टि ल्ीवोको बात कहीं जा रही है वह भी स्वर्गोमि श्रौर ग्रैवेयकोके एवं उससे ऊपरके श्रहुमिन्द्र पदमे रहते ह । तो. जो एक रस्ता जा रहा है उसके बीच जो पगडंडिर्या श्राती, हैं उनका ,भी उसके साथ महत्व बन जाता है । र| (४) भादोंकी दोषगुणकारण'मुतता--दोष है नरकादिक, तो जैसे स्वं श्रौर मोक्षका कारण भाव है ऐसे ही ना ८क्वादिक दुर्गतियोंका कारण भी भाव है, वह सद्भाव है, यह दुर्भाव है। तो भाव जो है यह गुण श्रौर .दोषका कारण है, इसलिए भावकी शुद्धि करना चाहिए जीव को । बाह्ममें क्या गुजरता है, किसका कंसा परिणाम है इस श्रोर यदि विकल्प जरा भी न रहे श्रीर श्रपने इस सहज ज्ञानस्त्रभावका ही उपयोग रहे तो इस जीवका कल्याण है । कितने भव गुजर चुके । उन भव्रोमे भी तो बहुतसा समागम था, लोग थे, जनता होगी, इज्जत चलती थी तोवे कैसे स्वप्न ये इस जीवके ?एेसेये भी स्वप्न हो जायेगे। तो थोडे दिनोके मिले हए इन समागमोमे श्रपने श्रापको बहा देना यह श्रपने लिए उचित बात नही है । तो भावक्रो ही गुण दोषका कारण जानें, उनमें उत्तम भाप तो गुणके कारण हैं प्रौर खोटे भाव दुर्गतिके कारण ह । मतलब इस जीवका जो कु होनहार है बह भावोके ्राघारपर है, इस कारण यहां भाव लिद्धको प्रैवान कहा है । जो साचा मुनि श्रौर श्रावक -है उसके उस योग्य भावलिज्धू रहता- है सो द्रह्यलिद्धको परमाथ न जानना । भावृलिद्धको परमां जानना । जैसा संतोने द्रव्यलिङ्ख घारण किया है यने सही जैनी दीक्षा ग्रहण की है, दिगम्बर मुद्रा जिस शरीरकी है वह मुनि भावलिद्धी है, तो उसकी द्रव्यलिज्पर दृष्टि न रहेगी.। द्रव्यलिज्ञध चलना है, पर द्रव्यलिद्भु मे ममता नही । द्रव्यलिज्धको देखकर यह मैं हू, ऐसा भाव ज्ञानियोके नही प्राग । , , (५) छह शव्योमे जीव, ओर पुद््गलमें ही विभावकौ संवता--भावलिङ्खीको तो ' सपने भाव, ही दृ्टगत रहते हैँ । जगतमे ५ प्रकारके द्रव्य है-(१) जीव, (२) पुद्गल (३) धमं (४) श्रघम, (५) भ्राकाण श्रौर (६) काल, जिसमे जीव तो श्रनन्तानन्त है । पुद्गल उससे भी श्रलन्तानन्त गुने है, घमंद्रव्य एक है, भ्रघृमद्रव्य एक है, भ्राकाशद्रव्य एक है, कालद्रव्य श्रस- सयात दै । इन श्रनन्तानन्त पदाथंमि जो जीवनामक पदार्थ है वह है चैतन्यस्वस्प । पुद्गल है रूप, रस, गघ, स्पशंका पिण्ड । घमं, प्रधमं, भ्राकाश, काल, यह भ्रमूतं द्रव्य है, इसका परि णमनं निरन्तर समान चलता है, क्योकिये चार द्रव्य कभी श्रशुद्ध नही होते, ये श्रमूर्त है, समान परिणमन है, सदैव शुद्ध है इस कारण इन द्रव्योमे श्रघिक कहने लायक कुछ नहीं है । शेषके जो दो प्रकारके द्रव्य हँ जीव श्रौर पुद्गल, ये श्रशुद्ध होते है। इनका जो भव भवान्तर - परि खमन चलता है वह भी ध्यानमे भाता, है । पुदूगलका तो यह सब आँखोसे हष्टिगत हो रहा-है




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