समन्वय | Samanvay

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Samanvay by डॉ० भगवान दास - Dr. Bhagawan Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१. गण॒० ] श्रहंता, राग-द घ, कलह ९ नौकर हैं, जो सदा उन की श्राज्ञापालन के लिए सिर ऊँचा किये हुए तयार रहते है; पर आप का कोई एक नौकर भी नहीं जो आप के कहे को रेखामात्र भी न यले । बस क्या पूछना था, ऐसी सलाह तो भट मन मे बैठ ही जाती है; घर मे पहले छोटे वच्चे लते दै, तब उन की धाय अपनी श्रपनायती दिखाने को लड़ती हैं, फिर उन की माय उन का उन का पच्ष लेकर लडती हैं, फिर उन के बापों को, श्रापस के सगे माइयो को, विवश हो कर लड़ना पढ़ता है, श्रौर चूल्डे ्रलग- द्रलग किये जाते ह । जो दशा मनुष्यलोक की, सो दशा देवलोक की । जीव की प्रकृति तो रागद्द घात्मक सभी लोको में एक सी है । पार्वती देवी ने पानी मिट्टी से, ( किसी पुराण मे लिखा है, श्रपने पसीने की मैल से ), मादो सुदी चौथ को, खूब मोटा ताजा पुत्रकः (पुचलक) बेटा बना कर महल के दरवाज़े पर खड़ा कर दिया, और हुक्म दे दिया कि कोई न छाने पवि, विशेष कर के शिव-शकर तो घुसने ही न पावें । हुकूमत मे बड़ा रस है, और हुकूमत का श्र है दूसरों की निष्कारण भी रोक टॉक, डॉट घोंट, करना, श्रौर अपनी शान मशीखत दिखलाना । 'सफ्राजेटिडम' ( स्लीराज्यं ) लोग समभते हैं कि 'सक्राजेरिडमः, श्र्थात्‌ लियो का शासनादि कार्यं मे पुरु के तुल्य श्रधिकार चाहना, यह एक नई बात पच्छिम के देशों ही मे पैदा हुई है । एसा नहीं । बड़ा पुराना भाव है; श्र इस के पोषक उदार-दृदय पुरुष भी हो गये हैं । श्रार्य-शिरोमणि भीष्म-पितामदद इसी कोटि में हैं । ख्रियों की, झपनी माताओं, बहिनों, पत्नियों की, सदा निन्‍्दा करना, इस झ्रभागे देश की चाल बहुत काल से हो रही है। मध्यकालीन संन्यासी शंकर से भी न रहा गया, कह मारा, “द्वारं किमेकं नरकस्य नारी ।” संन्यासी को एेसी निन्दा करने से क्या मतलब १ स्वयं भी तो माता के गर्भ से ही जनमे थे; श्र तमाशा यह कि बड़े मातृभक्त थे, यहाँ तक कि सन्यासी होते हुए भी, उस श्राश्रम के विरुद्ध, इन्हों ने माता का चन्त्य-संस्कार किया ! उत्तम ऋषियों के भाव दूसरे थे ।. जीर्णे भोजनमान्रेयः, गौतमः प्राणिनां देया; बटस्पतिरविश्वासः भागवः सखीषु मादंवम्‌ ।




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