शौकत उस्मानी | Shautak Usmani

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Shautak Usmani by गिरधारीलाल व्यास - Girdharilal Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सात ई ॐ ` ११ 4 1 स, =. प्ण > -9 € ¢ | ५ +, ~> == „भ. 15. सन शा. पान 4 का सामना कला पड़ा -कॉमिन फंड सि हो साय. काम निकाल लिया गया। यदि प्रबंध सही न हो तो इतने थोड़े पैसों का कॉमन फंड तो कभी का चुक गया होता। यात्रा पैदल थी! पौ मे फफोले पड़ गए थे, लेकिन मन के उच्य आदश ने उन्हें आगे से आगे बढ़ाएं रखा। शौकत उस्मानी संवसे अधिक दरें झेल रहा थां। ऊँची पहाड़ियों के मुकाबले उन्नत आशाएँ थीं। हि फिर आई काफिले को चुनौती देती हुई बर्फीली ठंडी पंजशीर नदी जो छाती से ऊपर तक बहती हुई मुख्य मार्ग को विभाजित कर रही थी। पंजशीर के दोनों ओर के शके हुए पहाड़ मार्नों दौ दैत्य हाथ मिला रहे हों । दूसरी तरफ पहुँचना जिन्दगी से खेलना था, लेकिन काफिते ने वापिस लौटने की बजाय जिन्दगी को खत मैं डालना बेहतर समझा । उसे कायर कहलाना मंजूर नहीं था। दूसरे अफगानिस्तान छोड़ना कभी संभव न होता, क्योंकि उसके अफगान गाइड ने भी यहाँ तक ला कर उसे छोड़ दिया था। मीटिंग हुई और नेपोलियन «द्वारा आल्प्स पार करने का उदाहरण सामने रखा गया। अब पंजशीर पार करने का उपाय सोया गया। अपनी पगड़ियों को उतार कर उन्हें जोड़ा गया और वे सामने से आते हुए बहाव में एक दूसरे से जुड़ कर उतर गए। आखिर कठोर संघर्ष के बाद वे नदी को पार करने में सफल हए) पवौ का खून जम गया था, वे मुत्र हो रहे थे) सूखे पर पहुँच कर घास जलाया, कपड़े सुखाए और काफी देर बाद जी में जी आया । अगले सुबह सयय से रवाना होकर मीलों तक चलने के बाद गंजू कारवां साय पहुँचे। यह एक बढ़िर जगह थी। पहाड़ियों में से झरना बह रहा था। सरायवाले ने वहीँ रात भर ठहरने से मना कर दियां। काफिला झरने के पास जा टिका जिसका कलकल मधुर स्वर संगीत का आनंद दे रहा था। रात को 9 बजे थकान से यूर काफिले के लोग सीए ही थे कि खतरे की. सीटियाँ सुनाई दीं। सबको सावधान होना पड़ा और उन्होंने अपनी नकली राइफलें संभाल लीं ताकि हमलावर का मुकाबला किया जा सके। कुत्ते भौंकने लगे और योङ की टे सुनाई देते लर्ण इस मौके पर इन लोगों का फारसी भाषा का शान काम जआया। वे समवेत स्वर में चिल्लाए कि वे भी हथियारबन्द हैं लेकिन पहल करके गोली नहीं चलाएँगे क्योंकि वे आतिथ्य को बदनाम महीं करना चाहते। चाल चल गई और टापें जाती हुई सुनाई दी। काफि ने सोचा कि संकट टल गया, किन्नु रात के तीन बजे फिर खतरे की सीटियौ बजने लगीं) फिर वही चाल चली गई और कामयाब रही। सुबह जल्दी ही वे गंजू से रवाना हुए। बीच में फिर नदी ने रास्ता रोका, लेकिन इस बार पानी की पाष्दर्शिता से पार कले ये सुविधा हुई, नदी भी चुत गहरी नहीं थी। अब की बार हिन्दूकश की मुसीबत का सामना करना पड़ा शिखा बर्फ से ढके हुए थे यद्यपि यह जुलाई की 21 तारीख थी. पहाड़ सीधे खड़े चुनौती दे रहे थे। रास्ता संकड़ा था। धकान से चूर और लहूलुहान काफिला बढ़ता रहा। री




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