रत्नकरणकश्रावकाचार | Ratnkarankashavakachaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ सम्यम्दशंनद्युद्धः संसारदारीरभोगनिर्विण्णः । पचगुर्चरणक्षरणो दश्ंनिकस्तस्वपथगृश्ः ॥ ---रस्नकरडकः । दर्शनिकः संसारद्टारीरमोगनिर्विष्णः पंचयुरुचरणमक्तः सम्यग्द्‌ शन- शुद्धश्च भवाति । --चारिन्रसार । उपसगे दुर्भिक्षे जरलि स्जायां च निःप्रतीकारे । धमय तनुविमो चनमाहुः सष्धेखनामायोः ॥ --रत्नकरंढक । उपसर्गे दुभिश्चे जरति निभ््रतीकाररुजायां । धमं तनुष्यज्ञनं सद्ेखना । = चारिश्रसार । यह चारित्रसार ' भरन्थ उन पाँच सात खास माननीय ग्रन्थोंमेंसे है जिनके आधारपर पं आश्ाधरजीने सागरधमागृतकी रचना की है, ओर इसलिये उसमे रत्नकरंडकके इस प्रकारके शब्दाजुसरणसे रत्नकरंडककी महत्ता, प्राचीनता ओर मान्यता ओर भी अधिकताके साथ ख्यापित होती दै । ओर भी कितने ही प्राचीन ग्रथोमिं भनेके प्रकारसे इस म्र॑थका अनुसरण पाया जाता दै, जिनके उढ्लेखको विस्तारभयसे हम यहाँ छोड़नेके लिये मजबूर हैं । ( ७ ) श्रीवादिराजसूरि नामके सुप्रसिद्ध विद्वान्‌ आचायेने अपना “पाश्चनाथ- चरितः शक संवत्‌ ९४७ में बनाकर समाप्त किया टै । इस प्रथमे साफ तौरसे 'देवागम' और ^रत्नकरंडक' दोनोके कतौ स्वामी समंतभद्रको ही सूचित . किया है । यथा-- * स्वामिनश्वरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहं । देवागमेन सबेज्ञो येनाधापि प्रदुइ्यंते ॥ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यसुखावह: । अर्थिने भव्यसाथांय दिष्टो रस्नकरण्डक: ॥ भथोत्‌--उनः स्वामी ( समंतभद ) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक नहीं है जिन्हे “देवागम' के द्वारा आज तक सर्वज्ञको प्रदार्शित कर रक्‍खा है । # तै मन्थ इस प्रकार दे--१ रत्नकरंडक, २ सोमदेवक़ृत यशस्तिलकान्तगंत उपासकाष्ययन, ३ चारित्रसार, ४ वसुनंदिश्रावकाचार, ५ श्रीजिनसेनकृत आदि-- पुराण, ६ तत्त्वार्थपूत्र आदि ।




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