समकालीन हिन्दी आलोचना | Samkaaleen Hindi Alochana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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को अपनी प्रतिक्रियाओं की पड़ताल करने को भी बाध्य करती है। पाठक स्वयं देख सकेंगे कि कृति-केन्द्रित आलोचना के ये उदाहरण उन्हें किस हद तक सजग उत्सुक या उद्धिग्न बना सके हैं। हिन्दी आलोचकों के बीच कवि-आलोचक सच्चिदानन्द वात्स्यायन अज्ञेय की उपस्थिति इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मूलतः कविद्रष्टि से रचनात्मक भाषा या रचना के यथार्थ पर विचार करने के बावजूद कठोर तर्कसंगत विश्लेषण का रास्ता ही वे चुनते रहे हैं। उल्लेखनीय यह है कि वे प्रायः अबोधता के साथ विष॑य का प्रस्ताव करते हैं और ज्ञानात्मक तर्क के अनुशासन के साथ आगे बढ़ते हैं। यथार्थ और यथार्थवाद निबन्ध में वे इस धारणा पर बल देते हैं कि बहुस्तरीय जटिल यथार्थ का साक्षात्कार या निर्वचन कविदृष्टि की माँग करता है। उनकी दृष्टि में आधुनिक साहित्य और कला के क्षेत्र में यही महत्त्वपूर्ण मोड़ है-यथार्थ को पकड़ने के लिए यथार्थवादी ग्रहण का परित्याग और कवि-दृष्टि का पुनः अंगीकार। यहाँ संकलित उनका दूसरा निवन्ध कविता का सम्प्रेषण तीसरा सप्तक की भूमिका है जिसका समकालीन काव्यालोचन के क्षेत्र में विशेष महत्त्व है। मलयज के दो निबन्ध मिथ में बदलता आदमी और सरोज त्मति और निराला इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं कि इनमें छायावाद-युग के एक बड़े आलोचक और महत्त्वपूर्ण कवि की विशिष्ट रचना के पाठ के लिए आगे के दौर के एक विकासोन्मुख नये लेखक की विलक्षण तैयारी संवेदनात्मक सजगता विनम्रता साहस और मर्मभेदिनी दृष्टि का पता लगता है। मलयज ने इनमें पहला लेख साहित्य अकादेमी के लिए रामचन्द्र शुक्ल पर विनिबन्ध मोनोग्राफ लिखने की तैयारी के सिलसिले में लिखा था । शुक्लजी के कई रूपों को पहचानते हुए मलयज उनके ख़ास उस रूप को महत्त्व देते हैं जिसमें शुक्लजी के सभी रूप समाहित हैं- वह है उनका विशिष्ट और विलक्षण के विरुद्ध सामान्य और सर्वानुभूत का पक्षधर रूप । मलयज की द्रप्टि में धरती शुक्लजी के सामान्य मनुष्य का संस्कार है आकाश उसका कर्म । अपने संस्कारों से वह धरती की ही तरह ठोस है अपनी संवेदना में मूर्त और वस्तून्मुखी । प्रत्यक्ष यथार्थ से अलग आध्यात्मिक उसके लिए फरेब है जैसे दूर कहीं धरती और आकाश का मिलन जो जब नज़र आता है तव धुँधलके में ही । यह घुंधलका ही यह छायावाद-रहस्यवाद है जिसके ख़िलाफ शुक्लजी ने अपनी लड़ाई लड़ी । मलयज के शब्द हैं- शुक्लजी की इस लड़ाई का हीरो उनका वही सामान्य मनुप्य है। अब से लगभग छत्तीस वर्ष पहले 1955 में आचार्य दा और हिन्दी आलोचना पुस्तक के पहले संस्करण की भूमिका में आलोचक राप्ति शर्मा ने लिखा था- हिन्दी साहित्य में शुक्लजी का वही महत्व है जो उपन्म्ासकार प्रेमचन्द या कथि निराला का । उन्होंने आलोचना के माध्यम से उसी सामनती संस्कृति 14 / समकालीन हिन्दी आलोचना




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