सूरसागर पूर्वार्ध | Soorsagar Purvardh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
38 MB
कुल पष्ठ :
876
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand), 'विनय ` 2
मकतश्रहुज्त वपु घरि नर्ेडरि, दवन दद्यो, उर दरि, खरि ।
चलि बलदेखि, अदिति-खु त-कारन, चि पद् ब्याज तिडुंपुर फिरि आई |
एदि थर बनी क्रोड गज-मोचन और अनंत कथा खति गाई ।
सूर दीन प्रभु-पगट-विरद खनि अजं दयाल पतत सिर नाद ॥द॥
+ य रामकली
जहाँ जह खमिरे हरि जिरि ` विधि, तद तेसं उटि धाणए (दो) ।
दीन-वंधु ` हरि, भक्त - कृपानिधि, चेद - पुराननि गाए (हो) ।
खत कवेर के मत्त-मगन भण, विषै-रस नेननि छाए (हो) ।
मुनि सराप त भर जमलतख, तिन्ह , हित झापु बधाए (हो) ।
पट कुचेल, दुरबल - द्विज देखत, ` ताके तंदुल खाए (हो) ।
संपति दै याकी पतिनी को मन - अभिलाष पुराए (हो)
जव गज गद्यो राह जल-भीतर, तव दरि कँ उर ध्याए (हो) ।
गरुड छडि, आतुर दे धाए, सो ततकाल छुड़ाए (हो) ।
कलानिधान, सकल-गुन-सागर, गुरु धों कहा पढ़ाए (हो) ।
तिहि उपकार सतक सुत जचि, सो जमपुर ते ट्याण (हो) ।
तुम मोखे अपराधी. माघव, केतिक स्वगं पराप (हो) ।
खूरदास-प्रमु भंक्त-बछुल तुम, पावन-नाम कद्दाए (हो) ॥७
राग घनाश्री
पमु कौ देखो एक खमाद्। ``
अति-गंभीर-उदार-उदधि हरि, जान-सिरोमनि राद ।
तिनका -सं अपने जनकौ गुन मानत मेस-समान ।
सक्ुचि गनत अपराध-सप्रुद्रहि. वेद-वंट्य भगवान ।
चद्न-प्रसन्न-कमल सनमुख दै देखत हों हरि जेस
विसुख भण अ्ररकृपा निमिष, किरि चितरयों तो तेसें.
भक्त-विरह-कातर करूनामय, डोलत पादं लागे।
सूरदास ऐसे स्वामी, कों देहि पीडि सो अभागे ॥८॥
, । राग नट
हरि सौ ठाकुर झौर नजन कों।
जिरि जिह विधि सेवक खख पावे, तिहि विधि राखत मन करँ।
भख भप मोजन जु उदर कौ; ठषा तोय, पट तन कौं।
सम्यो फिण्त खस्मी ज्यो सुल-सग, श्रोचरख गुनि गृह चन दर्तें।
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