सूरसागर पूर्वार्ध | Soorsagar Purvardh

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Book Image : सूरसागर पूर्वार्ध  - Soorsagar Purvardh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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, 'विनय ` 2 मकतश्रहुज्त वपु घरि नर्ेडरि, दवन दद्यो, उर दरि, खरि । चलि बलदेखि, अदिति-खु त-कारन, चि पद्‌ ब्याज तिडुंपुर फिरि आई | एदि थर बनी क्रोड गज-मोचन और अनंत कथा खति गाई । सूर दीन प्रभु-पगट-विरद खनि अजं दयाल पतत सिर नाद ॥द॥ + य रामकली जहाँ जह खमिरे हरि जिरि ` विधि, तद तेसं उटि धाणए (दो) । दीन-वंधु ` हरि, भक्त - कृपानिधि, चेद - पुराननि गाए (हो) । खत कवेर के मत्त-मगन भण, विषै-रस नेननि छाए (हो) । मुनि सराप त भर जमलतख, तिन्ह , हित झापु बधाए (हो) । पट कुचेल, दुरबल - द्विज देखत, ` ताके तंदुल खाए (हो) । संपति दै याकी पतिनी को मन - अभिलाष पुराए (हो) जव गज गद्यो राह जल-भीतर, तव दरि कँ उर ध्याए (हो) । गरुड छडि, आतुर दे धाए, सो ततकाल छुड़ाए (हो) । कलानिधान, सकल-गुन-सागर, गुरु धों कहा पढ़ाए (हो) । तिहि उपकार सतक सुत जचि, सो जमपुर ते ट्याण (हो) । तुम मोखे अपराधी. माघव, केतिक स्वगं पराप (हो) । खूरदास-प्रमु भंक्त-बछुल तुम, पावन-नाम कद्दाए (हो) ॥७ राग घनाश्री पमु कौ देखो एक खमाद्‌। `` अति-गंभीर-उदार-उदधि हरि, जान-सिरोमनि राद । तिनका -सं अपने जनकौ गुन मानत मेस-समान । सक्ुचि गनत अपराध-सप्रुद्रहि. वेद-वंट्य भगवान । चद्न-प्रसन्न-कमल सनमुख दै देखत हों हरि जेस विसुख भण अ्ररकृपा निमिष, किरि चितरयों तो तेसें. भक्त-विरह-कातर करूनामय, डोलत पादं लागे। सूरदास ऐसे स्वामी, कों देहि पीडि सो अभागे ॥८॥ , । राग नट हरि सौ ठाकुर झौर नजन कों। जिरि जिह विधि सेवक खख पावे, तिहि विधि राखत मन करँ। भख भप मोजन जु उदर कौ; ठषा तोय, पट तन कौं। सम्यो फिण्त खस्मी ज्यो सुल-सग, श्रोचरख गुनि गृह चन दर्तें।




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