द्विवेदी काव्यमाला | Dvivedi Kavyamala

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Dvivedi Kavyamala by देवकी - Devki

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१० ) ने खड़ी वोली का नेतृत्व करने के पहले भाषा के सुधार और मार्जन की ओर ध्यान ही नहीं दिया था । उनकी -जो कवितायें खडी वोली में नही है उनके कुछ नमूने छेकर उवत कथन को प्रमाणित किया जा सकता हैं-- परम विषय यह्‌ विपय ह जिन मारुम्बन कीन । तिन सब भांति विगारेऊ सके न करि जाधीन ॥ (विनयविनोद-- १८८९) छाये मेघ चहं दिशानि र्खिके श्यामा लामा महा । घोरारण्य मार द्याम हंसिकं हो गेह जैयौ कहा । प्यारी आयभु पाय जाय हरि के सकेतित-स्यान मेँ । कालिदी वर कूर केलि करिही आनन्द षागे रमे । (विहारवाटिका-- १८९०) विवात्ता हं कंसो सचत त्रंलोकं किमिसुरई । घरे केसी देही सकर किय वस्त निरमड। (श्रीमहिम्नस्तोत्र) ऋतुतरङ्किणी', श्रीगगाकहरी , गौर 'देवीस्तुनिहतक' की भी भाषा इसी प्रकार की है। काव्यमनूपा' में द्विवेदी जी की ब्रज-भापा और खडीवोली दोनो की कवितायें है । ब्रज-भाषा की कविताओ के विषय में यहाँ भी कोई नवीन वात नहीं मिलती । किन्ही किन्दी कविताओ से यह अवश्य सूचित होता है कि किस प्रकार घीरे घीरे द्विवेदी जी की काव्य-भापषा ब्रज से खडी वोली की मोर खिसकती भा रही ह । २९ अगस्त १८९८ के हिन्दी-वगवासी में प्रकाशित गर्द॑मे-काव्य' से हम दो-एक उदाहरण लेते है-- हरी घास खुरखुरी लग अति भूसा रगै करारा है दाना मूलि पेट यदि पहुँचे, कार्ट अस जस आराह। > >< >< > शिशिर वसत हिमत एक नहि ग्रीपम हमको प्यारा है। तपती भूमि गाँव के वाहर वरफिस्तान हमारा है 1 जहाँ 'अस', 'जस' जैसे प्रयोग ब्रजमापा की अस्थिरता प्रदर्शित करते हैं, वहाँ हमको जैसे प्रयोग और तुकात का आाकारात्त खडी वोली की ओर सकेत करता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है १९०० के वाद की लिखी हुई प्राय सभी कवितायें खडी वोली की हैँ । “द्ौपदी-वचन-वाणावली' खडीवोली की कदाचितू पहली कविताओ में से है, इसी लिए उसमे कही कही ब्रजमाषा का आभास मिल जाता है, जैसे-- वमंराज से दुर्योधन की इस प्रकार सुनि सिद्धि विशार । चिंतन कर अपकार दाधु-कृत, कृष्णा कोप न सकी सेमारू । फा० ख




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