साधना के पथ पर | Sadhana Ke Path Par
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
244
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ साधना के पथ पर
तो मुभे नाः कहना बहत मारी मालूम होता है व श्रपने कामा की पसा
न करके भी उनका काम कर देने की प्रति होती है । मेरे घर के व
साथी सब इस प्रद्वत्ति से एक अंश तक दुखी रहते है, मुभैः व मेरे कामों
को इससे हानि पहुँचती है, मगर मुें कुछ ऐसा लगता है कि ऐसे समय
ना” कहना मनुष्यता व सडटदयता के विपरीत है । इसमें मूल प्रेरणा तो
हिंसा या सेवा की ही है; परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि समाज में
सद्गुण की मी सीमा होती है । जब तक श्रपेक्ता है तब तक सीमायें हैं,
तर जबतक समाज है, हमारी सामाजिक दृष्टि है, तब तक सापेक्षता की
उपेक्षा नहीं हो सकती । समाज की हानि व टीका या निन्दा की जोखिम
लेकर ही मनुष्य निरपेक्ष रह सकता है श्रोर निरपेक्त-दृष्टि को पूर्णतः निभा
सकता है ।
अपना नुकसान करके भी जो दूसरों के काम आता रहता है; वह
'बेवकूफ' भले ही समका जाय, मगर उसे प्यार सब करते हैं । उस ब्च-
पन के दिनो की एक एसी सनसनीदार घटना मुभे याद है जो इन उपद्रवों
की पृष्ठभूमि में देने जैसी है। दर्जे में एक लड़के से सेरा ऋगड़ा हुता | उसके
पिता मदरसे में श्राकर मुभे डांटने-डपटने लगे । देडमास्टर साहब ने
उन्हें मना किया । वे उनसे भी उलभ पड़े । देडमास्टर ने श्रदालत मैं
मुकदमा चला दिया । मेँ प्रधान गवाह बनाया गया । लड़के के बाप ने
अदालत में श्रलग ले जाकर मेरे पाँव पर पगड़ी रख दी रोने लगे--
तुम्हारी गवाद्दी से मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायगी । वे बुजुग थे। मैं
इस भार को, उनके इतने जलील होने के इस दृश्य को, न. सह सका )
मेरी आंखों से भी आखुझ्रों की भड़ी लग गई । . मैंने गवाही नहीं दी; वे
बच गए. । हैड मास्टर तो नाराज हुए, उनकी सारी इमारत ढह गई--
मगर सारे गांव में मेरी तारीफ होती रही--बद्री बड़ा शरीफ है ।
नच
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