भारतेन्दु हरिश्चंद एक अध्ययन | Bharatendu Harishchandra Ek Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवनी जर्जर चनौर रोगप्रस्त बना दिया । सन्‌ १८८९ की उद्यपुरु-की' यात्रा शरीर को सहन न हो सकी । ये श्वास, खासी ओर उर से पीड़ित हो गये। सन्‌. १८८३१ में ( सं० १६४० चैत्र) हैजे का प्रकोप हा परन्तु दैश्वरालुग्रह से 'वच गये । अभी पूर्ण स्वस्थ न हुए थे कि शरीर की चिन्ता छोड़कर अपने लिखने-पढ़ने के कार्यो मे लग यये । सं० १६४० चैत्र शुक्ल पूणिमा को सात दिनि र ते है रोग दूब बाद ही हम उन्हे नाटक समाप्त करते हुए पाते है । उधर राग दूज ही गया था, जड़-मूल से नष्ट नहीं हुआ था। शोघ ही क्षय के चिन्ह प्रकट होने लगे। दूसरी जनवरी १८८४ से बोमारी बढ़ने लगी । दवा व इलाज सब व्यथे सिद्ध हुए । अन्त तक चेतना बेनी रही । ६ जनवरी सन्‌ १८८४ ( साथ कृष्ण ६ सं० १४४१ वि ). पोते दस वजे रान हिदी-साहित्य का बह चंद्र अस्वांगत हो गया । अंतिम चस्कुट बोली मे श्रीकृष्ण सहित स्वासिनी को याद करता हुआ आधुनिक हिन्दी का झम्रदूत वाणी का वरपुत्र हरिश्चन्द्र अपनों कीर्ति की चन्द्रिका प्रथ्वी पर छोड़ कर गोलोकवासी हुआ । शारतेन्दु की सत्यु पर शोक का जो व्यापक प्रकाश हुआ; समाचार पत्रो मे उनकी मत्यु पर जो सैकड़ो कालम रेंगे गए उनके सत्यु-तिथि पर द्रिश्चन्ड का जो आन्दोलन चला और सबसे अधिक उनके सित्रो और परवर्ती साहित्यिको के साहित्य पर उनकी छाप--इन सब से उनके युग प्रचतेक व्यक्तित्व और उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा पर प्रकाश पडता है। भारतेन्दु युग का साहित्य गोष्ठी साहित्य था। भारतेन्दु इस गोष्ठी के केन्द्र थे। इस गोष्ठी के लेखकों में पररपर समानधर्म: मित्रो जैसा व्यवहार था । आप मे पत्र-ज्यवहार रहता ! एक लेखक दूखरे लेखक की रचनाओं को पढ़ता, उस पर विचार-विनिमय करता श्रौर अपनी अगली रचनम से उसे सूचित करता और उसके परामश कीं




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