आत्म समीक्षण | Aatma Samikshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
476
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समता अवधारणा मे समा जाय--इसके लिए स्वय आत्मा स्वय की ज्ञाता वने। स्वस्वरूप
से पूर्णतया परिचय पाने के पश्चात् ही ज्ञाता की अवस्था समुत्पन्न होती है। वह ज्ञाता अपनी आत्मा
के मूल स्वरूप को भी पहिचान लेता है तो उसके वर्तमान कर्मावृत्त स्वरूप को भी जान लेता है।
इस दृष्टि से वह सर्व आत्माओं के मूल स्वरूप को उसी भाति मानते हुए उनकी कमवित्तिता की भी
पहिचान प्रारम करता है तथा प्रयास करता है कि वे आत्माएँ भी अपने वर्तमान स्वरूप को जानकर
कर्मो को अनावृत्त करने की साधना की ओर गति करे। एेसा आलीय सहयोग उसे सर्वालमा्ओं के
साथ अनुराग भाव से जोड़ता है कि वै सव उसके साय समान स्प से सम्बद्ध है ।
अपनी परिक्ता की जोर वदती हई समता की यह अवधारणा तव आचरण मे उतरती
ओर व्यवहृत होती है जव साधक अपनी आला का स्वय दृष्टा भी वन जाता है! वह दृष्टा तव अपने
कर्ता होने पर नियत्रक लगाम लगा लेता है! वह करता है किन्तु साध ही साध देखता भी रहता है
कि वह क्या कर रहा है, कैसा कर् रहा है, जो कर रहा है वह कितना समतामय है तथा कितना
समताहीन ? यह दृष्टि प्रतिक्षण सतर्क रहती है । इस कारण समता साधक की आत्मा जो कुछ भी
करती है, वह अधिकाधिक समतामय होता है तथा समतामय होता जाता है।
यह दश भाव स्वय की आत्मा को सतत जागृत रखता है कि वह किसी भी स्तर पर
सर्वात्म-हितैषिता से घिलग न हो। सारा ससार उसकी स्रेहमयी समता की छाया में आ जाता है।
ज्ञाता ओर दृष्टा वनकर जव साघक अपनी आसा की रमता को साघ लेता है तव चह
तीसरे चरण पर प्रतिधित चनता है) वह होता है ध्याता का भाव। तव वह निरन्तर इस ध्यान मे
रहता है कि उसकी प्रेरणा से अन्य सभी आत्माएँ भी समता के मार्ग पर अविचल चने ओर आगे
वटे । तव वह अनन्यदर्शी चन जाता है जर समता की सर्व स्रेहमयी रस धारा मे स्वय भी अवगाहन
करता है तथा अन्य आत्माओं कौ भी अवगाहन कराता है) आता की अनन्यदर्भिता ही अनन्त
आनन्द की अनन्त अनुमूति प्रदान करती है! जो जनन्यदर्शी हे, वह अनन्य आनन्दी ६ ओर जो
अनन्य आनम्दी हे वह अनन्यदर्शी है--यह एक शाश्वत सिंद्धान्त एव शाश्वत स्थिति हे।
महावीर प्रमु ने जपने इस शाश्वत तिद्धान्त के माध्यम मे उन्नतिकामी आत्माओं को प्रेरणा
दी है कि वे निरन्तर आत्म-तमीक्षण करे और यह जाने किं वे अपने जाता, दृटा एव व्यता पावो
को विकसित चनाकर समता मार्ग पर निश्चल गति से अग्रगामी दन रही हं अथवा मधर गति से
लक्ष्य कौ पाने का प्रयाम कर रेही है} यदि गति मवर हे तो पनी समता साधना की उक्ता मे
उसे उग्र वना होगा तधा समता के एच्च किर परं आर्द् चनकर अनन्यदर्शी एव अनन्य आनन्दी
चनना होगा, क्योंकि वहा पहुचकर ही सदा के लिए शाश्वत आनन्द का स्थायी रसास्वादन निवा जा
सकता हे! वही इर मानव जीवन का एव कर्म मुक्ति का चरम प्येव है।
फि्न्तु समता के सर्वो्र शियर पर आत्मा को परुंचायेगा कोन * कोई अन्य नहीं
पंचादेंगा, रवय इसी आत्मा को अपने आन्म समीक्ष्य एव ममतामप आचरण ऊ आयार पः चमं
पहुंचना होगा। आत्मा तो स्वय कर्ता है, वह न्स की आध्रित नहीं। इपकी लो पिया जाहिए
होती है वह इसकी कर्पायृत्तता के बाएग हैं। किन सप अद चिती यह स्का जनं म समदः
होती जाती है, नव और उतनी उसकी देजस्थिना, फर्मठता गय £लि समस्ता भी अधिव्यना को
जाती है।
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