उपदेश - रत्न - कोष | Upadesh Ratn Kosh

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Upadesh Ratn Kosh by मोहनलाल दुलीचन्द देसाई - Mohanlal Dulichand Desai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उप केश-रत्स-कतेब |. ॐ मिल सकेगप, नोर खुरली सामे, वाले, त्था बिन्दा करने वज्ञ को, ऊषर कहे दुप: सद्धुष्य की निन्दा करने का बहाना भी न मिल सकगा। कलिकाल कार्मा कुछ नहीं चल सकता ॥! नियमिज्जइ नियजीहा अधि आरिअिं नेव किज्जएकज्ज नकुलकम्मा अ लुप्पहे कुवि कि कुणइ कलिकालो ५४ नियमनीया निनजीड़ा अधिचारितं 'नेव करणीयकृत्यं | न कुल क्रमश्च लापनोीय: कुपितः कि करोति कलि कालः ॥ भअथ--झपनी जीम को कश में रखिये. कभी भी. बिना स्गोचे समभे काम न करिये, झौर कल्ाचार को न लोपिये तो सालात्‌ू कोपायमान कत्ति भी कया ऋर खसक्ता है? कुछ नहीं | वित्रैचन--ज असत्य निन्दारूपङ्गशवद्धक, सथा निर- थक, चनन बोलते, बितंमाषी होने की हादिक इच्छा जगे, दव्य. त्ते. काल. भाव, सम्दन्धी विचार किये बिना करोर न्य न कर्ने की. ध्यानपरं रहे, श्रौर विना किम्नी बडे परो कार के कलाचार न लोपने की सावधानी रहे तो कितनी भी कड़ी शत्रता वाला बरी भ्ल न दे सके, क्योंकि जो : निश्यय श्रौर व्यवहार से पत्िन्न हैं उन धुर्य के शन्न भी मित्र बन ज्ञात हे । सज्जन का राह | मम्मन उलबिज्जइ कस्स वि आल न दिज्जह कऋयावि को वि न उकको सिज्जह सज्जण सग्गों इसो दुर्गो।।




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