समयसार | Samay Saar

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Samay Saar by कुन्दकुन्द - Kundkund

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हा ५. रस-प्रयोग : समयसार मे सर्वत्र माधुर्य के दर्शन होते है। कुन्दकुन्द ने समयसार मेँ मुख्यत शान्तरस का प्रयोग किया है। शान्तरस का स्थायीभाव निर्वेद या शमह, जो समयसार के विषय के अनुरूप है। शान्तरस सम्यग्ञान से उत्पन्न होता है। उसका नायक निस्पृह होता है! राग-द्वेष के नितान्त त्याग मे सम्यग्लञान की उत्पत्तिऽ होती है। अत “भवबीजाङ्कुरजनना ` राग-द्वेष का परित्याग ही शान्त रस है। शान्तरस की इस व्याख्या से स्पष्ट षो जाता है कि समयसार मे शान्तरस प्रवाहित है, क्योकि समयसार का विषय अध्यात्म है। गाथा-१५ में बताया हुआ है कि जो भव्यात्मा आत्मा को शान्त भावस्थित आत्मा मे अनुभव करता है, वही आत्मा सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है। ६. अलकार-प्रयोग समयसार मे अलकारो का प्रयोग स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है। दृष्टान्त अलकार का प्रयोग तो अनेक स्थलों पर हुआ है। गाथा क्र ३०४ मे हमे अनुप्रास अलकार के दर्शन होते है। पाठ-शोधन की उपलब्धियाँ समयसार जैन-धर्म का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। केवल जैनधर्म का ही क्या, समूचे अध्यात्म वाडमय का वह एक पीयूष ग्रन्थ है, ऐसा ग्रन्थ, जो खोजने पर भी अन्यत्र न मिलेगा। यद्यपि समयमार की विभिन्न हस्तलिखित प्रतियो के मृलपाठो मे सामान्य ढंग से एकरूपता है, किन्तु कटी-कही उनकी गाथाओ की सख्या मे भद है, भाषा मे भेद द, पाठो मे भेद है। कभी किसी काल में किसी मस्कृतानुरागी व्यक्ति ने समयसार की मूल प्राकृत गाथाओ का सस्कृत छायानुवाद कर दिया। इसके पश्चात्‌ तो इस ग्रन्थ के सभी सम्पादको ओग अनुवादको ने अपनी प्रति मे उसी छायानुवाद का अनुकरण किया ओर मुल गाथा के साथ उमे भी अवश्य दिया। इस गतानुगतिकता का ण्कं दुष्परिणाम यह भी हुआ कि मूल गाथाओ मे पाट-भेद होने पर भी सस्कृत छाया प्रात सभी प्रतियो मे समान गदी। प्रायश सभी सम्पादको ने तो सम्कृत-प्रेम के अत्युत्साह मे गाथा का अन्वयार्थं करने के म्थान मे सम्कृत छाया का अन्वयार्थं अपने ग्रन्थ मे दिया है। समयसार ओर प्राकृत भाषा के साथ यह कैसी उपेक्षा टै - उपलब्ध सभी मुद्रित प्रतियो का हमने भाषा-शास््र, प्राकृत-व्याकरण ओर छन्द-शास्त्र की दृष्टि से मृक्ष्म अवलोकन किया है। हमे ऐसा लगा कि उन प्रतियो मे परस्पर तो अन्तर है ही, भाषा-शास्त्र आदि की दृष्टि से भी त्रुटियों की बहुलता है। अधिकाश कमियाँ जैन शौरसेनी भाषा के रूप को न समझने का परिणाम है। ३५ सम्यगजञान समुत्थान शान्तो निस्पृहनायक | रागद्वेष परित्थागात्सम्यनानस्य योट्भव ॥ ~ वाग्भट्रालकार, ५-३१ १२




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