भारतीय दर्शन का इतिहास भाग - 2 | Bhartiya Darshan Ka Itihas Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
548
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कंकर बेधाम्त सम्प्रदाय (क्रमदा:) ] [ &
भ्रास्मत् मँ प्राधित है एषं एक भोर तो उसके (श्रात्मषं के) यथायं ब्रह्मस्वरूप
अवभासित होने (प्रदर्शन) मे धाषकं होती है तथा दूसरी धरोर हमारे सामान्य भ्रनुभव
के मनोवैज्ञानिक व भात्मा से संबंधित विविध प्रत्ययों में भ्रपने श्रापको रूपान्तरित
करती है। चिन्तन, भनुभूति, इच्छा इत्यादि मनोवैज्ञानिक गुरो का संबंध प्रत्यक्-
चितति के साथ होने के कारण भ्रम होता है। ये मनोवेज्ञानिक निर्धारणाएँ परस्पर
शक दूसरे से संबंधित हैं। हस प्रकार सुखोंके उपमोयके लिए प्रथमतः कमं विशेष
झभिष्ट है, क्रिया के लिए प्रसक्ति, दद एवं इच्छाएँ श्रावइ्यक हैं, तथा सुख-दुःख का
श्रनुभव कर लेने के बाद ही उनमें भासक्ति एवं इच्छाएँं उत्पन्न होती हैं-प्रत: यह मनो-
वैज्ञानिक निर्धारणाएं भ्नादि चक्र के रूप में स्वभावत: स्वयं प्रकाइच प्रत्यक् चिति से
संबंधित हैं ।*
पदुमपाद भ्रथवा प्रकाशात्मन् की व्यास्या के भ्रनुसार उपरोक्त विचार से स्पष्ट
है कि ध्रज्ान भ्रपरिमाष्य है जिसमें परिबतन होने के कारण शभ्रात्मगत मनोवैज्ञानिक
अनुभव एवं नानाविषयात्मक जगत् का झाविर्माव हुआ है। यह श्रशान बौद्धों का
परज्ञान भ्र्थात् मिथ्या बुद्धि नहीं है एव न यह श्रध्यास नागाजुंन का विपयंयथ ही है,
क्योकि यहाँ यह एक मावाहिमका शक्ति है। इस प्रकार प्रकाशाह्मनू के भ्रनुसार
समस्त कार्यों के पीछे कोई कारण प्रवक्ष्य होते हैं जो उनके उपादान होते हैं ।
जगत्प्रतीति मी एक कायें है झत: इसका भी कोई उपादान श्रवव्य होगा जिससे इसका
विकास झथवा निर्माण हुआ ।. उस प्रत्यक्ू-चिति में मिलन शक्ति के रूप में निहित
झज्ञान का एक उपादान कारण है ।*. प्रत्यक्-चिति में इस भ्रविद्या दाक्ति का स्वरूप
भावरूप है । यह भावरूप भ्रज्ञान कईं क्षणिक प्रत्यक्षो में भ्रपरोक्ष रूप से गोचर
होता हैं, जैसे यै भ्रपने-भ्रापको भ्रथवा दूसरों को नही आनता एवं उपलक्ष्य में भी
इसका श्रनुमान श्रथवा बोध होता है ।* भ्रविद्या धरथवा श्रज्ञान को प्रत्यक्-चिति में
भन्तनिहित बाकि मानने का तात्पर्य यह है कि वह (भ्विद्या) उस पर भ्राश्रित है ।
भविद्या कोर दाक्ति नहीं है बल्कि एक द्भ्य प्रथवा इका सत्ता है जिसमें कई शक्तियां
झत: सा प्रत्यक्-चिति ब्रह्मस्वरूपावभास प्रतिबन्धाति भ्रहकाराद्या तद्रूप-प्रतिमास
निमित्ता च भवति। -पंचपादिका १० ५।
प्रकाशारमन् द्वारा लिखित पचपादिका विवरण, प° १०, विजयनगरम् सस्त
सिरीज १८६२ ।
सवं च कार्यं सोपादान भावकायंत्वात् घटादित्यनुमानात् परस्मान् मिथ्यायं तज्जाना-
त्मकं मिथ्या भूत भ्ष्यासमुपादानकारणासापेक्षंमिध्याज्ञानमेवाष्यासोपादानम् ।
-पचपादिका विवरण, पृऽ ११-१२।
हर
कद
पंचपादिका विवरण, प° १३ ।
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