जैनधर्म प्रकाश | Jaindharma Prakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५७ (४) की कड़ी शा्षा नहीं है-वे स्वयं मरे हुवे पशुका माँस पीने में दोष नहीं समझते हैं, इसी से चीन व ब्रह्मामें करोड़ोँ बौद्ध मांसा- हारी है जबकि जैन कोई भी प्रगटपनें से मांसाहारी न मिलेगा । इसलिये जैनमत बीद्धमत की शाखा है यह कथन ठोक नहीं है शीर न यह हिन्दुमत को शास्या है, क्योकि लांख्य, मोमांसादि दशनौ से दका दाशंनिक मागं मिस्न ही प्रकार का है; जो त पुस्तक क पुने से विदित दोगा । जैनमत की शिक्षा सीधी श्ौर वैराभ्यपूरं है । हर एक गृहस्थ को छः कम नित्य कले का उपदेश दै । ( १ ) दैवपूजा (९) गुरुमक्ति ( ३) शाखेपढ़ना (४) संयम ( 8० ठएए0) 07 ५1 0008700 )' का झाम्यास (९) तप ( सामगयिकं या संध्या या ध्यानया ( आल्वापणा है (६ ) दान ( झाहार, श्रीषधि, अरमय सथा विधा) तथा उनक्रो इन आटपूल युशौके पालने का उपदेश हैः- मवम मधु यागे; सहाणत पद्‌ । , उपै मूलगुणानाहयहणं श्मणोतमाः॥ =, श्र्थात्‌-मद या नशं न पीना, सति न खाना, मधु यानी एद्‌ न लाना क्योंकि इसमें बहुत से सुदम जंतुझ का नाश होता है, पाच पापों से वचना श्रत्‌ जात वृ कर चूथा पश्‌ पत्ती धादि की हिसा न करना, भू ठन बोलना, चोरी नें करना, अपनों ख्री में संतोष रखना, परिश्रह था सम्पत्ति की मर्यादा कर लेना जिसे वृष्णा, घरे इनको गृहस्थो के आद भूल यण उत्तम ध्राचायो मे वतलाय। है । हमारे जैनेतर भाई देख सकते हैं कि यह शिक्षा भी दर एक




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