तीर्थ - यात्रा | Tirtha - Yatra

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Tirtha - Yatra by सुदर्शन - Sudarshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आशीर्वादः १५ वै्यजी ने नाडी देखी, माथे पर हाथ रक्वा, ओर फिर कटा-“कोई । चिता नहीं। दवा देता हूँ, बुखार उतर जायमा 1 लानवन्ती के डूबते हुए हृदय को सहारा सिल गया। उसने इषट के आंचल से अव्न्नी खोली, ओर वंद्यजी की भेंट कर 'दी। वेद्यजी ने मुंह से “नहीं-नहीं' कहा, मगर हाथों ने मुंह का साथ न दिया, { २ कई दिन बीत गये, हेम का बुखार नहीं घटा। वेद्यजी ने कई दवाइयाँ वदलीं; परन्तु किसी ने अपना असर न दिखाया । लाजवन्ती की सचिता बढ़ने लगी। वह रात-रात्तभर उसके सिरहाने बेठी 'रहती। लोग आते और घीरज दे-देकर चले जाते; परन्तु लाजवस्ती का सन उनकी बातो की ओर स था। वह अपने सन को पुरी शक्ति से हेम की सेवा में लगी रहती थी। एक दिन उसने वंद्य से पुछा-'क्या बात है, जो यह बुखार नहीं उतरता ?” बैद्यजी ने एक कदाक्ष-बिशेष से, जो प्रायः वैद्य लोग ही किया करते हे, उत्तर दिया-“भियादी बुखार हं ।“ लाजवन्ती ने तड़पकर पूछा-“सियादी बुखार क्या?” “अयनी सियार पुरी करके उतरेगा।” “पर कव तक उतरेगा ?” “इक्कीसवें दिन उतरेगा, इससे पहले नहीं उतर सकता ।” “आज ग्यारह दिन हो श्ये हं 1 “बस दस दिन और हे । किसी तरह यह दिन निकाल दो, भगवान भला करेगा।” लाजवन्ती का भाथा ठनका । हिचकिचाते हुए बोली-“कोई अदेसा तो नहीं हं? सच-सच उता दीजिए।” चैद्यजी थोडी देर चुप रहे। इस समय वह सोच रहे थे कि उसे सच-सच वतार्ये, या न वतार्थे ! आखिर बोरे- देखो बुखार दुस्साध्य-सा




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