तीर्थ - यात्रा | Tirtha - Yatra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
224
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आशीर्वादः १५
वै्यजी ने नाडी देखी, माथे पर हाथ रक्वा, ओर फिर कटा-“कोई
। चिता नहीं। दवा देता हूँ, बुखार उतर जायमा 1
लानवन्ती के डूबते हुए हृदय को सहारा सिल गया। उसने इषट
के आंचल से अव्न्नी खोली, ओर वंद्यजी की भेंट कर 'दी। वेद्यजी ने
मुंह से “नहीं-नहीं' कहा, मगर हाथों ने मुंह का साथ न दिया,
{ २
कई दिन बीत गये, हेम का बुखार नहीं घटा। वेद्यजी ने कई दवाइयाँ
वदलीं; परन्तु किसी ने अपना असर न दिखाया । लाजवन्ती की
सचिता बढ़ने लगी। वह रात-रात्तभर उसके सिरहाने बेठी 'रहती। लोग
आते और घीरज दे-देकर चले जाते; परन्तु लाजवस्ती का सन उनकी
बातो की ओर स था। वह अपने सन को पुरी शक्ति से हेम की सेवा
में लगी रहती थी।
एक दिन उसने वंद्य से पुछा-'क्या बात है, जो यह बुखार नहीं
उतरता ?”
बैद्यजी ने एक कदाक्ष-बिशेष से, जो प्रायः वैद्य लोग ही किया
करते हे, उत्तर दिया-“भियादी बुखार हं ।“
लाजवन्ती ने तड़पकर पूछा-“सियादी बुखार क्या?”
“अयनी सियार पुरी करके उतरेगा।”
“पर कव तक उतरेगा ?”
“इक्कीसवें दिन उतरेगा, इससे पहले नहीं उतर सकता ।”
“आज ग्यारह दिन हो श्ये हं 1
“बस दस दिन और हे । किसी तरह यह दिन निकाल दो,
भगवान भला करेगा।”
लाजवन्ती का भाथा ठनका । हिचकिचाते हुए बोली-“कोई अदेसा
तो नहीं हं? सच-सच उता दीजिए।”
चैद्यजी थोडी देर चुप रहे। इस समय वह सोच रहे थे कि उसे
सच-सच वतार्ये, या न वतार्थे ! आखिर बोरे- देखो बुखार दुस्साध्य-सा
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