नई चेतना की दिशा | Nai Chetana Ki Disha

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Nai Chetana Ki Disha by राजेश्वर प्रसाद कौशिक - Rajeshvar Prasad Kaushik

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about राजेश्वर प्रसाद कौशिक - Rajeshvar Prasad Kaushik

Add Infomation AboutRajeshvar Prasad Kaushik

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
16 / नई चेतना की दिया समस्याओं को वह केवल बौद्धिक समाधान दे सकती है परन्तु ऐसे बौद्धिक निरूपण द्वारा मौलिक रूफ भे समस्य हल नही हो पाती । जीवन का प्रथं खोजने के लिए हमें अपने ही जीवन की ओर मुझना पड़ेगा [ हमारे जीवन के किसी भी श्रियाकलाप का उद्देश्य क्या है ? क्या उसका सक्ष्य प्रसस्तता या आनन्द नही है? सुबह से शाम तक, बचपन से बुढ़ापे तके हम जो असंख्प कार्य करते रहते हैं, क्या हम उनके द्वारा सुख की भर ही नहीं दौड़ रहे हैं? और इस अनन्त दौड़-घूप तथा नाना क्रियाकलाएों, प्रयत्नों और संघर्षों के बावजूद हममें से कितने आदमी कहू सकते हैं कि हम सचमुच सुखी है। प्ररन है कि हम यह सुख खजते क्यों हैं ? क्या हम कोई ऐसी चीज़ खोज रहे हैं जो कि हसारे पास है अथवा ऐसी चीज खोज रहे हैं जो हुमारे पास सहीं है ? हम ऐसी कोई चीज़ कभी नहीं खोजते जो हमारे पास होती है । तो जब हम सुख खोजते है तौ क्या उसका वहु अथं होता किं हमारे पास उसका अभाव है? हममें से कुछ लोगों के मन में अपने जीवन में कुछ पा लेने या अधिकृत कर लेने का सन्तोष हो सकता हैं जो उनके अपने मनमाने लेक्ष्य के ढांचे के भीतर सही होता है । पर सामान्य: यहीं देखा जाता है कि किसी के मन में स्थायी सम्तोष नहीं है । हम जिसे संन्तोष कहूंते हैं उसकी क्षणिक चमक दिखाई पड़ती है भर बाद में फिर उकताहट हैमें घर लेती है । फिर संतोष की पाप्ति के लिए उसके पीछे हमारी अन्तष्टीन दौड़ जारी हो जाती है! यह्‌ तसा, यह दौड़ अन्तत: बोरियत से बचाव का एक साधस अस लाती है । यदि हम इस दौड़ को चालू नहीं रखता चाहते तो हम निरीक्षण का एके ऐसा सापदण्ड आरम्भ कर सकते हैं थो केवल नीचे की ओर देखता है। हम ऐसे ही लोगों के साथ अपने भाग्य की तुलना करने लगते हैं जो हमसे कम भाग्यशाली और हमसे कम सुविधा- प्राप्त हैं । लेकिन यह संतोष उसी क्षण हुवा में गायब हो जाता हैं जब हम ऊपर की आर देखते हैं और उन लोगो से अपने भाग्य की तुलना करने लगते हैं जो हमसे अधिक सुविधा-प्राप्त हैं। यह संतोष सच्चा संतोष नहीं है। यह केवल एक प्रतिरोध शक्ति का प्रदर्शन है जिससे हम दूसरों से बाहर होकर स्वपमू को विशेष मानते हैं । अस्तु--- हम इस मानसिक प्रतिरोध शक्ति का विस्तार करने के स्थान पर बिना अटकाव के सुल और संत्तोष की अन्तहीन दौड़ में लगे रहते हैं ठो उसके चलते सामाजिक समस्याएं तौ उत्पन्न होती' ही है, हमारा झारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी तीचे गिरने सता है! हुम जब अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की संतुष्टि की प्रकिया में लगते हैं तो किसी माता मे उसके साय संवेदिक (सचेदी) सुल भी ज जाता है जो कि स्वाभाविक है भौर सम्मभवत: उसका आचरयक संगी-साथी है! इन संबेदिक सुखों को नष्ट कर डालया आवश्यक नहीं है ! तपस्वी लोगों ने बड़े पैमाने पर जिन उपायों का आश्रय लिया है वे सकारात्मक सुख के अतिरिक्त और कुछ नहीं थे ! भौतिक स्तर पर संवेदात्मक चुल-दुःख एक भुरक्षात्मके दंहिके कार्ये करते रह सकते हैं। पर इन संवेदात्मक सुखों को मांभिक आवश्यकताओं से अलग कर देने से और एकमात्र इन्हीं युखों के पीछें दौड़ने से मस्तिष्क कुद हो जाता है और स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है। संबेदनात्मक दुख की कोई भी मात्रा




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now