हिन्दी - साहित्य में भ्रमरगीत की परम्परा | Hindi Sahitya Men Bhramaragit Ki Parampara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २ ) सन्देशवाहक बनना पड़ा | एेसी ही कान्य-रूढ्वियो मै चन्द्र, चकोर, चातक अर मेघ तथा चक्रवाक युगम प्रसिद्ध है, किन्तु भमर जिसे श्राघुनिक साहित्य काल के पूवं प्रकृति-वरणन मे गौण स्थान प्राप्त था, वह कव श्मौर कते उपालम्भ का पात्र बन बैठा, विचारणीय है । इस भ्रमर को प्रतीक मानकर ही क्यों ऐसी सरस संवेदनात्मक कान्यकलापूणं गीतात्मक रचना प्रारम्भ हो गई जिसकी परम्परा राज तक निर्बाध्य है | साहित्य भी विज्ञान की भाँति वातावरण के प्रति प्रतिक्रिया हैं । साहित्य का उद्देश्य झावेष्टन के ग्रति विशेष सम्बन्ध स्थापित करना है। विज्ञान केवल भौतिक .जगत्‌ का श्माश्रय लेकर विभिन्न वस्तु्यों म काय-कारण-सम्बन्ध की स्थापना करता है जब कि साहित्य मानव की विस्तृत समस्यां को, उनसे उत्पन्न शुभ श्रौर अशुभ, सुन्दर-ग्रसुन्द्र तत्त्वों को चुनकर उनका समाधान करता हे तथा मानव का मानव-जीवन के सथ रागात्मकं सम्बन्ध स्थापित करता ह| निष्कषं यह हे कि साहित्यिक कृतियों से सम्बन्धित खोजों में इति- दास से यधेष्ट सहायता मिल सकती है | “प्रमरगीत” का उदूगमस्थल भागवत है | भागवत म वशित इस गोपी- उद्धव-संवादवाले श्रमरगीत प्रसंग का उद श्य ्माध्यास्मिक ज्ञात होता है तथापि लौकिक भावनाओं का. भी आभास उसमे प्रत्यक्ष है | कृष्ण का उद्धव को एकान्त में बुलाकर उनसे गोकुल जाकर संदेश कहने के लिये श्राप्रह करना तथा उद्धव के बचनों को सुनकर यशोदा का प्रेमविह्लल हो जाना इस बात के सान्ती हैं | यशौदा वण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च। श्चएवन्त्य श्रएयवाल्लाक्तीत्‌ स्नेहस्तुत पयोधरा ॥ इसके अनतिरिक्त श्रमरगीत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गोपियों की यह पंक्ि “पुम्मिः खीघषु कृतायद्वत सुमनस्विव घ्ड्पदै:” भी कल्यना को यथेष्ट प्रश्रय देती है । उद्धव को आया देख गोपियों के मन में स्वतः भ्रमर कीं लोभी वृत्ति का स्मरण हो श्ाता हैं । इस प्रसंग से स्पष्ट हे कि भ्रमर की रसलोलुपता प्रेम का प्रतीक नहं है | बह पुष्प को प्रेम नहीं करता, किन्तु उसके मकरन्द का लोभी अवश्य हैं | अन्य स्थलों पर भी. जहाँ प्रकृति-वर्णन के श्रन्तगत इम क




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