जैन संस्कृति और राजस्थान | Jain Sanskriti Aur Rajasthan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय | | १५ग्न ये सब उपसाएँ साभिप्राय दी गई है । सर्प की भांति ये साधु भी श्रपना कोई घर (बिल) नहीं बनाते । पव॑त की भाति ये परीषहों श्र उपसर्गो की श्राधी से डोलायमान नही होते । भ्रग्नि की भाति ज्ञान रूपी ईन्घन से ये तृप्त नही होते । समुद्र की भाति गम्रथाह ज्ञान को प्राप्त कर भी ये तीर्थकर की मया का प्रतिक्रमर नही करते । श्राकाश की भाति ये स्वाश्रयी, स्वावलम्बी होते है, किसी के प्रवलम्बन पर नही टिकते । वृक्ष की भाति समभाव पूर्वक दु ख-सुख को सहन करते है । भ्रमर की भाति किसी को चिना पीड़ा पहुचाये शरीर-रक्षण के लिए प्राह्मार ग्रहण करते है । मूंग की भाति पापकारी प्रवृत्तियो के सहसे दूर रहते है । पृथ्वी की भाति शीत, ताप, चेदन, भेदन श्रादि कष्टो को समभाव पूर्वक सहन कर्ते है, कमल की भाति वासना के कीचड श्रौर वैभव के जल से प्रलिप्त रहते है । सूर्यकी भात्ति स्वसाधना एव लोकोपदेशना के द्वारा श्रज्ञानान्धकार को नष्ट करते है । पवन की भाति सर्वत्र श्रप्रतिबद्धरूपसे विचरण करते है । एेसे श्रमणो का वेयक्तिक स्वार्थ हो ही क्या सकता है * ये श्रमण पणं प्रहिसक होते है । षट्काय (पृथ्वीकायः, श्रपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिक।य श्रौर त्रसकाय) जीवौ कौ रक्ष( करते टै । न किसी को सारते है, न किसी को मारने की प्रेरणा देतें है आर न जो प्राणियों का वध करते है, उनकी श्रतुमोदना करते है इनका यह्‌ श्रहिसा- प्रेम प्रत्यन्त सृक्ष्म श्र गम्भीर होता है । ये अहिसा के साथ-साथ सत्य, ्रचोौर्य, ब्रह्मचये श्रौर भ्रपरिग्रहु के भी उपासक होते है । किसी की वस्तु बिना पुछे नहीं उठाते । कामिनी श्रौर कंचन के सवथा त्यागी होते है । भ्राचश्यकता से भी कम वस्तुभ्नों की सेवना करते है । संग्रह करना तो इन्होने सीखा ही नहीं । ये मनसा, वाचा, कमणा किसी का वध नहीं करते, हथियार उठाकर किसी श्रत्याचारी-प्रन्यायी राजा का नाश नही करते, लेकिन इससे उनके लोक सग्रही रूप मे कोई कमी नही भ्राती । भावना की हष्टि से तो उसमे श्रौर वेशिष्ट्य आता है । ये श्रमण पापियों को नष्ट कर उनको मौत के घाट नही उतारते वरन्‌ उन्हें आत्मबोध श्रौर उपदेश देकर सही मागं पर लाते है । ये पापी को मारने में नहीं, उसे सुधारने में विश्वास करते है । यही कारण है कि महावीर ने विषहष्टि सपं चण्डक्रीशिक को मारा नही वरत्‌ ग्रपने प्राणो को खतरे मे डाल कर, उसे उसके श्रात्मस्वरूप से परिचित कराया । बस फिर क्या था ? वह्‌ विष से शभ्रमृत बन गया । लोक-कल्याण की यह प्रक्रिया भ्रत्यन्त सूक्ष्म और गहरी है । इनका लोक-सग्ाहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है। ये मानव के हित के लिये श्रन्य प्राणियों का वध करना व्यर्थ ही नही, धर्म के विरुद्ध समभते है । इनकी यह लोक- सप्रह की भावना इसीलिये जनतत्र से प्रागे बढकर प्राणतंत्र तक पहुँची है । यदि श्रयत्तना से किसी जीव का वध हो जाता है या प्रमादवश किसी को कष्ट पहुंचता है तो ये उन सब पापों से दूर हटने के लिए प्रातः साय प्रतिक्रमण (प्रायश्चित) करते है । ये नगे पैर पैदल चलते है । गाव-गांव श्रौर नगर-नगर में विचरण कर सामाजिक चेतना श्रौर सुपुप्त पुरुषा्थे को जागृत करते हैं। चातुर्मास के प्रलावा किसी भी स्थान पर नियत वास नहीं करते । अपने पास केवल इतनी वस्तुएँ रखते है जिन्हे ये श्रपने श्राप उठाकर भ्रमण कर सके । भोजन के लिये गृहस्थो के यहाँ से भिक्षा लाते है । भिक्षा भी जितनी श्रावश्यकता होती है उतनी ही । दूसरे समय के लिये भोजन का सचय ये नही करते । रात्रि मे न पानी पीते है न कुछ खाते है ।




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