संस्कृति संगम | Sanskrati Sangam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
176
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)एक भारतीय संस्कृति के निद्शन
एवं ध्रसम मे भी यह् निर्व॑ध समाद्त है, थ्रीर सिथिला में चाचस्पति
सिर का सत प्रधान है । किन्तु यह ध्यान देने की वात हैं कि यद्यपि
रघुनन्दन का मत सारे बंगाल में समाइत है तथापि उसके पूर्वी किनारे
पर शोर श्रीइड ( सिलदर-श्रसम में उसका प्रचार एकदस नहीं है ।
चहो मिथिला में प्रचलित वाचस्पति भिश्च कामत दही मान्य दै । भाषा-
शाख का जिन्हौने ्रध्ययन किया दै उनका भी कथन् है क्षि श्रीद वस्तुतः
मिथिला से होकर धायी हुई पश्चिम-भारतीय जातियों का उपनिवेश है ।
यहाँ पर नागरी श्रत्तरौ मे लिखी हु श्रनेक बंगला पुस्तकें पायी राई हैं ।
प्रिथिलाद्टी से ये जातियाँ यदि श्रायी होतीं तो उनकी लिपि नागरी न
होती । सिधिला श्रौर वंसाल की लिपियोँ प्रायः एक ही हैं | इन लोगों के
चंश में मिश्र, लाला ध्रादि परिचिम्र-भारतय उपाधियाँ भी हैं । निवंधों के
प्रचलन से भी उपयुक्त भापा-शास््रोय सत की मुष्टि होती हैं, क्योंकि
चाचस्पति. प्िश्र के निबंध का ऐसा प्रभाव बंगाल में शोर कहीं भी नहीं
है| यह ज़रूरत है कि श्रीदद्द से घारंभ करके मेघना नदी के किनारे-
किनारे उत्तरी मेंसनसिंह श्रीर नवाखाली ज़िलों में इसी सत का समादर
है । इन स्थानों में रघुवन्दन का अभाव नहीं है । सिधिला की भाँति ही
इन स्थानें के व्राह्मण प्राचीन प्रथा के खूब भक्त हैं । बंगाल के दूसरे
स्थानों के ब्राह्मण एतने कट्टर प्राचीनपंयौ नदीं हैं । फिर इन्हीं प्रद्शों में
पुराने ज़माने में बहुतर जातियों हिंदू नहीं वन सकीं, वौद्ध ही बनी रहीं
शरीर वाद में चलकर धघर्मान््तर में दीकित हुई 1
जिन लोगों का निवंध-साहित्य से परिचय नहीं है वे कभी-कभी कह
दिया करते हैं कि स्खतिकार श्र निवंधकारगण सन-गढ़न्त रीति-रस्सी की
सष्टि करते. रहे द ! लेकिन वास्तव मे यदह वात नदीं है । वस्तुतः समाज
में जो सब नियमादि पहले से दी प्रचलित थे उन्हींको, विशेष-विशेष
स्थानों में दाप-चुटि दूर करके; तततत् स्थानों में सबंपान्य होने योग्य एक
शद्ध -सस्छृत साधारण सामाजिक विधि का उन्होंने प्रवर्तन किया हैं 1
जे्वंधकारो ने बाहर से लाकर समाज के सिर प्र नूतन व्यवस्थाएँ नहीं
--१७-
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