पुनर्नवा | Punarnva
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
308
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मर्ते, जते वभे करने का बुछ भोर ढंग होना चाहिए । मिटटी के शरीर
पर झाइप्ट होनेयाले रगिक जानते ही नहीं कि रस बया चोजं द 1 सदय माव
चाहता है, देवरत श्रीर् गी धराये यकर सहामाव चाहता है । सहामाय कया
होता होगा मना ! मजुला फिर उसक गयी । देवरात किम महामाय में रहते
हूँ ? सदा प्रसलत, सदा श्रद्धापरायण, सदा निर्वोम । मजुला सोचने लगी, उसने
देवयत षो क्या ग्रलत समस्या? पूरी राजसमा मेयदीततो एवः सहृदय दै
जो रग का मर्मत् हैं, दादी तो माँड हैं। ना, देवरात हो सच्चा पुष्प है ।
थारी तो मॉसि के मुंबदड भेडिये हैं। देवरात को परास्त करना होगा, मगर
उसी के स्तर पर । उसे पसीना आ गया । भ्ंगुलियों से मी स्वेद की भादेगा
भनुभूत हुई । पहु चिन्ता उसे बर्ट दिनों तक व्यादुस फिये रही 1
षृ दिन वाद एक दूसरे प्रायोजन के समय मजुला को देवरात पर चरिजय
पानि बत श्रवमर मिला! उम दिन उसका दलित निरन्तर मयित होने के दाद
शासन हो आया था । जैसे बिलोये हुए दथि में मक्खन उतरा श्राता है, बैगे ही
भंजुला मे श्रव मात्वि माव उमड़ भापा था । उसने विशुद्ध चलापार की
ऊँचाई से सहुदप को वश में करने वा निश्चय किय्य था । देवरान उस दिन
ध्राइस में एक कविता सुना रहे थे । कविता स्य्गार रस थी जान पड़ती
थी । बहता सोग, जो देवरा को चैरागी समकते थे, इस कविता को सुनकर
विस्मित हुए ये । कविता इस प्रकार धौ--
अग्नं पित्ताव एकमा मं वरारेहि पियमदि सरन्ती}
कन्ति उगततम्मि गए हण मुप्रतताण रोदिस्सम 11
(रोवन दं मति भाजि तृ, मति वरज रहि मौन)
तथन चनने समि कान्दि जौ, प्राण वर्च, रोर्मोन॥
देवरान ने इसको बडे ्यात्रुल स्वर में पढ़ा । उनका स्वर कॉँप रहा था । ऐसा
जान पइता था कि नाभिकुटर से निकले हुए दाव्द हैं जो समस्त चन्नों को अना-
याम ही देघकर निफल रहे हैं । देवरात का नादयर्थ वेवल निमि्तमात्र जान
पडता था । ऐसा लगता था कि कोई विश्वव्यापिती पर्म-वेदना अ्नापाम हो
उनके नादयस्त्र के माध्यम से हिल्लोलित हो उठी हो । पिछले रस-मर्मश्ञो को
इसमें सम्देहू नहीं रहा कि इसका कि स्वयं अनुभव करने वे वाद हो ऐसी वात
बहू रहा है । लोगों ने तो यह मी कहना घुरू किया कि इस चविता का सम्दस्थ
देवरान थी किसी झाप-दीती बहानी से अवश्य है। लेकिन भंजुला विचसित्त
हो गयी । बहू सन-दी-मन देवरान के वंदग्व्य से मुग्व हो रही । उसे लगा कि
व्ययं में उद्धत झमिमान के कारण बह अब तक इस एकमाय सहदय पुष्प को
सपेक्षा करती रही है। उगका श्रस्तर इस प्रकार दवित हो उसा जैसे दीपेकाल
से जमा हुआ दिम एकाएक उप्य वायु के स्पर्श से पिघल गया हो । हाय, दिस
पुनर्नवा { १५
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