विचार और वितर्क | Vichaar Aur Vitarak
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
266
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)हिन्दी का भक्ति-साहित्य २
से लग करके नदीं देखा जा सकता । ग्रलंकार-शाचख्र श्रौर काच्यगत रूदियां से
उसे एकदम मुक्त नीं कहा जा सकता । परन्तु फिर भी वह वही चीज़ नहीं ६ जो
संस्कृत, प्राकृत तर श्रपभ्र'श के पूववर्ती साहित्य द । विरोपतापे. बहुत दह ग्रौर
हमें उन्हें सावधानी से जॉचना चाहिए ।
यह स्मरण किया जा सकता ह कि अलंकारशास्त्र में देवादि-विपयक रति
को भाव कहत द । जिन श्रालंकारिको मे ऐसा कहा था उनका तात्य यह था कि
पुरुष का घ्रीके प्रतिश्रौरस््री का पुरुपके प्रतिजो प्रेम होता दे उसमं एक
स्थायित्व होता ह, जब कि किसी राजा या देवता सम्बन्धी येम मं भावावेश की
प्रधानता होती ह, वह श्रन्यान्य संचारी भावा की तरह बदलता रहता ह| परन्तु
यह बात ठीक नर्हीं कदी जा सकती । भगवद्-विपयक प्रेम को इस विधान क दारा
नहीं समम्ाया जा सकता । यह् कृटना किं भगवद्विषयक प्रेम मं निर्यद् भाव की
प्रधानता रहती हे, श्र्थात् उसमे जगत् कै प्रति उदासीन होने की वर्ति दी प्रबल
होती हे, केवल जड़जगत् से मानसिक सम्बन्धको ही प्रधान मान लनादै। इस
केथन का स्पष्ट श्रथ यहद कि मनुष्य के साथ जड़-जगत् के सम्बन्ध की ही
स्थायिता पर सेरस का निरूपण देगा | क्याकिं अगर ऐसा न माना जाता तो
शान्त रस में जगत् के साथ जो निर्वेदात्मक सम्बन्ध है, उसे प्रधानता न देकर
भगवद् विषयक प्रेम कां प्रधानता दी जाती । जो लोग शान्त रस का स्थायी भाव
निर्वेद को न कहकर शम को कहना चाहते हँ, वे वस्तुतः इसी रास्त सोचते दं ।
इस प्रसंग म बारम्बार 'जड्-जगत्ः शब्द का उल्लेख किया गया है । यह
शब्द् भक्ति-शाल्ियों का पारिभाषिक शब्द् हे । इस प्रसंग का विचार करते समय
याद रखना चाहिए किं भारतीय दर्शनों के मत से शरीर, इन्द्रिय, मन और ठद्धि
सभी जड़ प्रकृति के विकार हैं । इसीलिये चिद्धिषयक प्रेम केवल भगवान् से
सम्बन्ध रखता है । इस परम प्रेम के प्राप्त होने पर, भक्तिशास्त्रियों का दावा है,
कि अन्यान्य जड़ोन्मुख प्रेम शिथिल और श्रकृतकायं हौ जाते हैं । इसीलिये
भगवत्-प्रेम न तो इंद्रिय-ग्राह्म है, न मनोगम्य, श्रौर न बद्धि-साध्य । वह अनुमान
द्वारा ही आस्वाद्य हैं । जब इस रस का साक्षात्कार होता है तो अपना कुछ भी नहीं
रह जाता । इंद्रियों दवारा किया हरा कम हौ या मन बुद्धि-स्वभाव द्वारा, वह समस्त
सच्चिदानन्द नारायण मेँ जाकंर विश्रमित होता है । भागवत में ( ११. २. ३६ )
इसीलिये कहा है :
User Reviews
No Reviews | Add Yours...