गुरुकुल - पत्रिका | Gurukul - Patrika

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Gurukul - Patrika by सुखदेव दर्शन वाचस्पति-Sukhdev Darshan Vaachspti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२०५६ 3 भारतीय अन्यो में 'क्लेय” शब्द के विषय में सब से प्राचान स केत जो मुक्ते मिला है वह यह दे । तथापि इस का श्रय कलई ( -टिन ) है न कि कलई चढाना ( टिन-कोटिंग ) | इस निबन्ध में कलई चट ने का इतिहास ही मेगा प्रयोजन है । राज्वयवहार कोष में “कल्दईकर' ( वह व्यक्ति जो कलई चढ़ाने का पेश! करता था ) की श्रोर सकेत स्पष्ट सिद्ध करता हे कि किस प्रकार १७ वीं शताब्दी मे भारतवर्ष में कलई चढाना मली भाति प्रचलित दो चुका था श्रपने इस परिणाम की पुष्टि में सस्क़त के श्र सस्कृत भिन्न भी श्रनेक श्रतिरिक्त प्रमाण हमें मिल जाते हैं*-- बी. एन. नाथ ने मद्रास में सन्‌ १६२७ ई० में शिवतत्वरत्नाकर नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया था। इस के रचयिता इक्केरी के राबा ( १६६८-१७१५ ई० ) केलाडीबसव थे | यद्द ग्रन्थ सास्कृतिक सस्कृत छुग्द्श्शास्र का एक विश्वकोघ सा है । इस के सूप- शास्र वाले [ पकानान्याचन सम्बन्धी ] श्रध्याय में कन्ञाव-लेप [या टिन कोटिंग ] का वर्णन दे । छठे क्‍्ल्लोल में १८ वीं तरज्ञ का १३ वा नछोक इस प्रकार हि { पृष्ठ २१५ पर ]- हप्यपात्र पचेदज्न श्लेष्मपितच्तामयापहम्‌ । कला यकेपिते पात्र पचेदन्न सुशीतलम्‌ ॥१३ ५ इष शोके मे पर्नेकेलिएस्पष्टस्पसे कल चद हए बतंन का विधान किया गया है) इस चकमे प्रयुक्त कलायः सन्द कोई सस्कृत शब्द नहीं है, परन्तु यह टिन के लिए. एक श्ररनी शब्द है, बिख का केला डीवसव ने थोड़ा सा सस्कृतीकरण कर दिया है | हिन्दू कवि सुरदा [ १४८३- १५६२ ई० ] ने भी कलई का वर्पन किया है रेखा कि मुझे श्रपने बतेनों पर कलई चदान का इतिहा भाषा विज्ञनी मित्र ढा० सिद्ध श्वर वर्मा [ नागपुर द्वारा उनके २६-८--४& के पत्र से ज्ञात हुआ है, उस में इस प्रकार लिखा हे-- कल्ददे के सम्बन्वमे एकमात्र शामप्री जो कि श्रापका तुरन्त मिल सकती है, वह सूरदास की एएक पक्ति है, जिसे इइन्दी शब्द सागर प्रथम माग [१६१५] के कलई प्रकरण में उदघृत किया गया है । व पक़ि इस प्रकार हे 'प्राई उधरी प्र ति कलई सी जेंती खाटी श्रामी” उस शन्द कोष कलै का श्रथं रागाः किया है, श्रीर्‌ रागे का श्रयं 'मागवस्दण्डडं इल्स््रटेड डिक्शनरी श्रॉफ दी दिन्दी लेंग्वेज' में दिन” किया गया है, जब कि कलई” का झये इस में किसी पदार्थ पर टिन का पतला लेप' किया है । बादशाह श्रकवर की रसोई का श्रबुलफजले ने श्रपनौ श्राइने श्रकबरी में विस्तृत वर्णन किया हे [ ग्लेड स्मिथ कृत त्रभे श्रनुबाद पथम माग कलकत्ता १८६७, के १० ४९- ४ परर] । श्रकनर की मेज पर भोजन, सोने, चादी, पत्थर श्रौर चीनी को विभिन्न तस्तरियों में परोसा जाता था । उसकी रसोई का वर्णन करते हुए, श्रपने श्रन्तिम निम्नलिखित वाक्या में उस ने रसोई के ताने के बतेन पर भी कले चद शेने + वेन [कवा है [१० ५१} महाराज के प्रयोगके लिए तबे के बतनों पर एक महीने में दो बार कलई चढ़वाई जाती है, परन्तु रब. कुमारो एव श्रन्त पुर निवातियों के लिए, महीने में एक बार बलई होती है । जा कोई भी ताबे के वर्तन टूट जाते हैं वे ठठेरों को दे दिये जाते हैं । वे दूसरे बर्तन बना देते हें | १ न केवल यद। उद्धर्षं परन्तु इसके श्रतिरिक्त श्रपने श्रध्ययन से सम्बन्धित श्रपनी भ्रनेक निरा छश्रो का निरन्तर श्रौर तुरन्त उर वे मुक्ते देते रहे हैं । इस सबके लिए मैंने डाक्टर वर्मा साइव के प्रति श्वपने गहरे कृतज्ता के भाव को श्रकड करने का यह श्रज्छा श्रवशर षमा है । [श्रूं] उनी




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