गुप्तजी के काव्य की कारुण्यधारा | Guptji Ke Kavy Ki Karunyadhara

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Guptji Ke Kavy Ki Karunyadhara by धर्मेन्द्र - Dharmendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ~ | जोर-जोर से आल्हा पदना । भपको कोई आल्दा की पुस्तक भिरी कि आपने उसे जोर-जोर से पढ़ना आरम्भ किया । श्रोताओं में से किसी ने वाह ! वाह 1 कद्द दिया, तो फिर आप और जोर-जोर से पढ़ने लगे । यह देखकर आपके बड़े भाई को चिन्ता हुई कि यह कहीं बिंगड़ न जाय ।. इसी विचार से उन्होंने इन्हें सुंशी अजमेरीजी की संगति में डाल दिया । मुंशी अजमेरीजी से सभी परिचित हैं, वे हिन्दी के अच्छे कवि थे ।. मुसलमान होते हुए भी गुप्तजी के पिता अजमेरीजी को पुत्रबत्‌ मानते थे और कहा करते थे कि आप मेरे छठे पुत्र है । सुंखी अजमेसजी की संगति से गुप्रजी का छधार् हो गया । वे इन्हें कद्दानियाँ सुनाते और कविताएँ कण्ठश्थ कराते । सुंशीजी की कृपा से गुप्तजी का कवित्व-प्रतिभांकुर कुम्हलाने न पाया. और आचार्य द्विवेदीजी के कृपा-सिंचन से तो वह पछवित हो उठा । गुप्तजी को पद्यरचना का शोक १५-१६ वषे की अवस्था में, उस समय से गा, जिष समय अपने घर पर संस्कृत पढ़ना आरम्भ किया ३ दोहे-छप्पय में विभिन्न विषयों पर कविताएँ बनाते और उन्हें कलकत्ते से प्रकाशित होनेवाले विद्योपकारकः नाक पच मँ छषपाते } उन दिनों आचायें ट्विवेदीजी झाँधी में रेलवे के दफ्तर में नोकर थे ।. गुप्तजी अपने बड़े भाई के साथ द्विवेदीजी से मिलने झाँसी आये ।. आपके * ने यह कदकर “ये मेरे छोटे भाई भी कविता करते हूँ” द्विवेदीजी से आपका परेचय कराया । उस समय की मुलाकात सिफे इतनी ही रही । पश्चात्‌ आपने देमन्त' शीषक कविता द्िवेदीजी के पास सरस्वती” में प्रराशनाथ भेजी । टीने की सरस्वतीः में आपको कदिता न छपी । दताश आपने उसे कनोज से घ्रकादित होनेवाली 'मोहिनी' नामक पत्रिका में छपा डाला । कुछ समय




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