विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ भाग - 1 | Vishv Ki Prachin Sabhyataen Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ बनाकर जीवन के रहस्य को आत्मसात्‌ किया है ओर न्यायपूवक रहने की कला ओर युक्तियों का विकास किया है, कर्हौँ तक कर्णा के क्षेत्र को विस्तृत करके मानव भाग को उस में समेट लेने का सफल अभ्यास किया है, इन सब दृष्टियों से संस्कृतियों को मापने का मानदण्ड प्राप्त किया जा सकता है । संस्कृति एक ओर मन का विषय है तो दूसरी ओर नितान्त स्थूल ओर भौतिक मानवीय कृतिर्यो का । भौतिक धरातल पर या भूतो के माध्यम से आत्मा की अभिव्यक्ति ही मानव है जिसमे मानस-तत्व, बुद्धि ओर चिन्तन-रक्ति का सबसे अधिक विकास हुआ है। मन ही मनुष्य है। मनुष्य की बुद्धि जीवन के अनेक मन्त्रो का आविष्कार कर्ती रहती है । संस्कृति विशेष की ऊंचाई नापने का विश्वसनीय मापदण्ड मानव के सुसंस्कृत मन की परख है । यहाँ कोई पक्षपात नहीं रहता । प्रत्येक को विश्व के रंगमञ्च पर किए हुए अपने करों के आधार पर विशुद्धि के अक्षर प्राप्त करने होते है| नदी के प्रवाह के समान प्रत्येक संस्कृति अपने मार्ग से बहती है । वह अपने लिए जिन दो किनारों का निर्माण करती है वहीं उसकी विदेष सीमा है । उसी में कालचक्र के द्वारा उसके यश का विस्तार होता है । ये दो किनारे कोन से हैं १ इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक प्रवाह का एक किनारा मन है, दूसरा कर्म । किसने कितना सोचा और किसने कितना किया इससे ही जीवन की नदी बनती है । संस्कृति के जन्म और विकास का भी यही ढाँचा है । विधाता की सृष्टि में सबका नियामक तत्त्व काल है । उसके पट- परिवतन से कोई भी अद्धृता नदीं रहता । विद्व के नास्य मञ्च पर अनेक यवनि- काएँ उठती और गिरती रहती हैं । नाटक के पात्र अपने ही विचार ओर कर्म की योग्यता से अभिनय कर चले जाते हैं । इस दृष्टि से प्रत्येक संस्कृति इतिहास के लिए कुछ सांकेतिक अक्षर लिख जाती है। वे ही मानवीय जीवन रूपी व्याकरण के प्रत्याहार सूत्र है । भारत ने अध्यात्म को, यूनान ने सौन्दर्य-तत्त्व को, रोम ने न्याय ओर दण्ड-व्यवस्था को, चीनने विराय्‌ जीवन के आधार भूत नियम को, ईरान ने सत्‌ ओर असत्‌ के दन्द को, मिलने भौतिक जीवन की व्यवस्था और संस्कार को, सुमेर ओर मलेच्छ जातियो ने दैवी दण्ड-विधान को ञ्जपनी अपनी दृष्टि से आदर्द रूप में स्वीकार करके उनकी प्रेरणा से संस्कृति का विकास किया । वे सब हमारे लिए मूल्यवान हैं | संस्कृतियों के इतिहास का एक मर्म ध्यान में आता है और वह यह है कि दरीर का संस्कार और आत्मा का संस्कार दोनों ही मानव के लिए इष्ट हैं । जहाँ दोनों का समन्वय शो वही प्राप्तव्य बिन्दु है। न केवल शरीर के अलंकरण




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