काव्यकल्पद्रुम भाग - 1 | Kavya Kalp Drum Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १५६ चलने को कहा । इसका यह्‌ अथं नदीं कि वह राजा सोन्दयोदि- गुण-सस्पन्न न था, ओर यह वात भी नहीं थी कि इन्दुमतिः वर की परीक्षा करने में झनभिज्ञ थी । फिर इन्दुमति ने श्रङ्गराज को वरण क्यो नही किया ‰ महाकवि कहते दै--खङ्गराज को इन्दुमति ने चरण नहीं किया; इसलिये वह योग्य नहीं कहा जा सकता श्ौर न इन्दुर्मात ही वर-परीक्षा में झयोग्य कही जा सकती है । वास्तव सै वात यह्‌ है कि “भिन्न रुचिर्हिलोक', किसी वस्तु के त्याग और परहण मै भिन्न भिन्न रुचि ही एकमात्र कारण है। किन्तु यह तो बात ही दूसरी है । यहाँ तो प्रश्न काव्य के ब्मानत्दालुभव का है । अतएव केवल नेसर्मिक-प्रकृति वणेनात्मक काव्य को व्यङ्ग्य एवं अलङ्कार युक्त काव्य से उचछष्ट कहना. काव्य के रहस्य से अनसिज्ञता मात्र ही है । अतएव साहित्य जैसे रसावह और जटिल विषय को भली भाँति समभने और समकाने के लिये साहित्यशास्त्र के अध्ययन की बहुत छाव- श्यकता है। खेद है कि हिन्दी के श्रंथकारों ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया । हिन्दी के प्राचीन रीति प्रन्थों सें प्रथम ' तो पद्य में दिये गये लक्षण अस्पष्ट हैं, फिर उनका स्पष्टीकरण वार्तिक में न किया जाने के कारण वे बहुत ही संदिग्ध रह गये हे । उनके द्वारा विषय का सममना कठिन दी नदी, कदी कही पर तो दुर्वोध भी हो गया है । | इस ग्रंथ में इस विषय के संस्कृत ग्रन्थों के विवेचन के अनुसार लक्षण सूत्र-- रूप रय में दिये गये ह । लक्षणों को समभाने एवं उदाह- रणों में लक्षणों का समन्वय करने के लिये चार्तिक-चृत्ति सें स्पष्टीकरण कर दिया गया है। अधिकाधिक उदाहरण देकर विषय को यधासाध्य स्पष्ट करने की वेष्टा की गह है ।




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