सौन्दर्य - तत्त्व | Saoondraya-tatwa
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
143 MB
कुल पष्ठ :
292
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त - Surendranath Dasgupta
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका ` €
उसकी समग्रता में हमें अवश्य ही अपने एश्वथे, अपनी शक्ति और अपनी सत्ता
आदि का बोध आनम्ददायी होता हं ।
विविधता अथवा देचित्य की सौन्दर्यानुभूति कभी-कभी विरोध के आधार
यर भी हेती हं ! उदाहरणतः, किसी चित्र सें छाया-प्रकादा के रंग आकर्षक पाइवे-
भूमि तेयार करते हं) इसी प्रकार गोरे रंग पर कारी साडी कौ हूदयाकषंकता
भी छिपी नहीं है \ काव्य में विरोधम्खक अलंकारो का यही उपयोग हे । यह्
विरोध सुख-दुख के रूप मे जीवन में क्रिया का संचार तो करता ही ह, उत्साहादि
का प्रसारक भी होता है। इसी में जीवन का वास्तविक रूप खिलता हं । अतः
वेचित्रय तथा अनेकत्व में एकत्व, दोनों का सौन्दर्यातुभूति में योग रहता है ।
इनके अतिरिक्त कभी सारत्य और कभी वक्रता भी सौन्दर्य को उपस्थित
करते हूं। सहज ही ग्राहय होने वाली वस्तु निश्चय ही मन पर प्रभाव जसाती
है। इसके विपरीत कभी-कभी यदि वक्रता का सहारा लिया जाय तो वह भी
पूर्ण प्रभाव उत्पन्न करती है। इसीलिए अभिधा मात्र के आगे बढ़कर लक्षणा आर
व्यजना को काव्य से प्रतिष्ठा दी गयी हूं । कन्तक ने तो वक्रोक्ति की प्रधानता-
सिद्धि के लिए संबको उसी के अन्तभ् त कर लिया है । सारांश यह कि उक्त सभी
साधनों में सौन्दर्य की सिद्धि कराने की किसी-न-किसी रूप में सामर्थ्य अवध्य है,
इसमे सन्देह नहीं ।
रूपाकार मे सोन्दयं द ठने कौ यह् प्रवृत्ति सौन्दयं को वस्तुनिष्ठ मानकर चली
हं अतः इसकी सारी खोज वस्तु तक ही सीमित रही । सौन्दयं का किसी प्रकार
अनुभवकर्ता से भी कोई आन्तरिक सम्बन्ध हं अथवा नही, इस सम्बन्ध में यह
मत चुप ही रहय । परन्तु प्रन यह हं कि यदि वस्तु स्वतः सुन्दर होती हं तो कोई
वस्तु किंसी को सुन्दर जौरः किसी को असुन्दर या स॒न्दरता-निरपेक्ष क्यों लगती
है ? क्यों एक व्यक्ति अपनी कृरूपा पत्नी को थी सुन्दर ही समझ कर सुखी रह
लेता हू और क्यों कोई दूसरा उसे देखकर नाक-भौं सिकोड़ने लगता है? क्यों
एक व्यक्ति के द्वारा की गई व्यवस्था दूसर व्यक्ति की आँखों में खटकने रूंगा करती
है? क्यों सभी व्यक्ति एक ही वस्तु को देखकर एक-सा सुख नहीं उठाते या उसके
प्रति एक-सी विरक्ति प्रदर्शित नहीं करते ? * सण्डे-सण्डे सतिशिन्ना ' अथवा ' नेको
मू नियस्थ मतं न भिचम् , मतवेषम्य के सूचक ये वाक्य हमार यहाँ क्यों प्रचलित
हो गये हैं ? ऐसा लगता है कि सौन्दर्य की व्याख्या इन प्रहनों के रहते हुए केवल
.. बस्तुनिष्ठ दृष्टि से कभी पूर्ण नहीं हो सकेगी : सम्भवतः, इसी प्रकार के अनेकानेक
. श्रइनों का विचार करते हुए ही योरोप में दूसरा मत प्रयोग-सौन्दर्य अथवा साहचयें-
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