धर्म और दर्शन (1967) एसी 6466 | Dharm Aur Darshan (1967) Ac 6466

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Dharm Aur Darshan (1967) Ac 6466 by देवेन्द्रमुनि शास्त्री - Devendramuni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र धर्मं ओर दर्दनि इन प्रहनो के समाधान के दो उपाय दह निष्ठा भ्रौर तक । निष्ठा से धर्म का ज म होता है भौरतकसे दर्शनका। किन्तु धम श्रौर दक्षन दोनो विषय श्रत्यन्त गम्भीर हैं श्रौर उनमे व्यापक भाव निहित है । भ्रतएव उचित होगा कि उनके सम्बध मे यहा सक्षप में विचार कर लिया जाए । घम क्या है ? धम एक बहुप्रचलित शद है । इस देवा मे प्रधिकं स भ्रधिक प्रचलित श्र प्रयुक्त होने वाल शब्दो मे धर्म श द को गणना की जा सकती है। पठित श्रौर अपटित सभी वर्गों के लोग दनिक व्यवहार प्रे सहस्रौ बार दस शब्द का प्रयोग करते है। फिर भी निस्सकोच कहा जा सकता है कि धम के मम को पहचानने वाले बहुत कम लाग हैं । झधिकाश लोग जाति एवं समाज मे पुरातन कालसे चलौ भ्राती परम्पराग्रो रूढियोया धारणाश्रोमे घमकी कल्पना कर लेते है भौर उ ही के पालन को घम का पालन मान लेते हैं । उह्ी का पालन करके वे सतुष्ट हो जाते है श्रौर श्रतिम समय तक धोषे मे रहने है । समाज मे एक वग ऐसा है जा धन के विषय में प्रमाराभ्ुत समभा जाता है । कितु दुर्भाग्य से उसमे भी श्रधिकाश यक्ति ऐसे होते है जो धर्म की वास्तविकता से अनभिन् होते है। श्रध के नेतृत्व में चलने वाले ध्रघो की जो गात होती है वहीं जनसाधारण की भी गति होती है । धम का सम्ब ध कर लोग लौकिक कर्तव्यो या वर्तमान जीवन के साथ ही जोडते हैं तो कर्ट लोग सिफ श्रात्मा के शाइवत कल्याण के साथ । कि तु सूक्ष्म प्र गभीर विचार करने पर विदित होगा कि घम वास्तव मे एकागी नही है । उसमे मनुष्य के लौकिक श्रौर श्राध्यात्मिक सभो कत्त पोका समावेश होता है। मनुष्य को श्रपनी श्रात्मचुद्धि के लिए या श्रपने शुद्ध स्वरूपकी उपर्लधि के लिए जिन नियमोया विधि निषेधो का श्रनुसरगा करना चाहिए उनका समावेश तौ धर्म मे होता ही है मगर उसके समस्त लौकिक कत्तव्य भी धर्मके प्रन्त गत ही हँ । मनुष्य का भ्रन्य प्राणियो के प्रति क्या कत्त व्य है ? झगर




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