सूली और सिंहासन | Sulee Aur Sinhasan

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Sulee Aur Sinhasan by देवेन्द्रमुनि शास्त्री - Devendramuni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिव्ततव १७ मन्त्र की शक्ति कहीं लुप्त नहीं हुई ।--कथा भी आगे बलेगी। और हमारा चरित्रनायक भी अपने परिवत्तित रूप रें उपस्थित होगा । तथ्य यह है कि कालचक्र नियमित रूप से अपनी धुरी 7र घुम रहा था। ठीक समय पर, एक भी क्षण इधर या उधर हुए विना बालक सुभग को इस मृत्यु के माध्यम से एक नया जन्म ग्रहण करना था। उसका भावनामय जीवन तरिवर्तित हो चुका था, किन्तु उसके देहिक जीवन में भी एक परिवतंन भाना था, और वह आया । इस परिवर्तन को ही हम जन्म या मृत्यु का नाम देते हैं। वस्तुतः जीवन अबाघ और भखण्ड है । सुभग के पूर्व॑- कृत पुण्यकर्म उसे एक विशिष्ट जीवन और सिद्धि की ओर ले जा रहे थे | नवकार महा मन्त्र का स्मरण करते हुए सुभग ने यह शरीर त्याग दिया और उसके शुभ परिणामस्वरूप वह उसी रात्रि को जिनदास की पत्नी भहंद्वासी के गर्भ में आया। उस समय अहद्यासी ने स्वप्न में एक फला-फला कल्पवृक्ष देखा । इसी प्रकार के अनेक लक्षणों से जिनदास और अहंद सी को यह विश्वास हो ग्रया कि सुभग की मृत्यु हो गई है और वह अब अहद्यासी के मर्भ में आाया ह्वै। यह प्रसंग उन दोनों के लिए दुःख और आनन्द का एक मिश्रित प्रसंग था। बालक सुभग के स्मरण से उन्हें




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