प्रागैतिहासिक प्राग्वैदिक जैनधर्म एवं उसके सिध्दान्त एसी 6918 | Pragaitihashik Pragvaidhik Jaindhram Aur Ushki Shidhant Ac 6918

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Pragaitihashik Pragvaidhik Jaindhram Aur Ushki Shidhant Ac 6918 by अरविन्द कुमार - ARVIND KUMARनाथूलाल जैन शास्त्री - Nathulal Jain Shastri

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नाथूलाल जैन शास्त्री - Nathulal Jain Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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3 नमस्कार करते हुये भरत चकवर्ती, उनके पीछे भगवान का चिह्न वृषभ है | नीचे की पक्ति मेँ भरत सम्राट्‌ के रप्तांग प्रतीक 1 राजा 2 ग्रामाधिपति, 3 जनपद, 4 दुर्ग, 5 भण्डार. 5 षडगबल, 7 भिन्न श्रेणिव खड है। यह पुरातत्त्ववेत्ता आचार्य विद्यानदजी महाराज ने पहचाना है । यह मूर्ति समवसरण मे विराजमान ऋषभदेव की है| वाचस्पति गैरौला के अनुसार मोहनजोदडो से प्राप्त ध्यानस्थ योगियो की मूर्ति की प्राप्ति से जैनधर्म की-प्राचीनता सिद्ध होती है। डो. चिसुद्धनंद पाठ्क और डी. ्जयराकरप्रसाद <~ के मत से सिधु घाटी की सभ्यता मे प्राप्त योगमूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मत्र ऋषभदेव और अरिष्ट नेमि जैसे तीर्थकरों के नाम उस विचार के मुख्य आधार है । पद्मश्री रामधारीसिह दिनकर के अनुसार मोहनजोदडो की खुदाई मे योग के प्रमाण मिले है ओर जेनधर्म के आदि तीर्थकर श्री ऋषभदेव थे जिनके साथ योग ओर योग की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालान्तर मे वह शिव के साथ समन्वित हो गई । इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अनुपयुक्त नही दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपूर्वं है । प्रो: रामचंदा का मत है -- कि “ऋषभ जिनकी मूर्तियो पर मुकुट मे त्रिशूल चिह्न बनने की प्रथा रही है ।खण्डगिरि की जैन गुफाओ मे (ईसा पूर्व 2 शती) एव मथुरा के कुषाणकालीन जैन प्रतीको पर आदिमे त्रिशूल चिन्ह मिलता है जो मोहनजोदडो कं चित्र के अनुकूल ही है (इसके पूर्व का चित्र) जैन प्रतीको




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