जैन जगती | Jain-jagti

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Jain-jagti by अरविन्द कुमार - ARVIND KUMAR

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जेन-जगती अतीत खण्ड ---+>~० म सङ्कलाचरण हे शारदे ! उर-वौण पर तू कमल-पाणि पसार दे, सच दोर है तार वेसर-प्राण इनमे डार दे। मैं वदन-सरवर-सुस-कमल पर सुमन-आसन डर षू तू मन-मनोरथ सार दे तन, मन, चचन, उपहार हूँ ॥ १ ॥ लेखनी पारस-विनिर्सित लेखनी ! सुक्ता-मसी में घोल हूँ कल हंस मानस चित्र दे--हृदू सार झपना खोल हूँ चह यान हो, पिक-तान हो, वीणा सनोरम पाणि दो अरविद-उर तनहार हो, भ्यरविद' पर बर पाणि द्ये ॥२॥ उपक्रमणशिका किसका रहा वेभवद वताम एक्सा सखव काल से; जोधा कभो उन्नत वही बिगड्ा-हुया हे हल मे। इस दुर्दिविस मे बह कथा हे लेयनी ! लिखनो तुमे; पाषाणु-उर इस हो गये; पर पद करना है तुमे ॥ ३ ॥




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