पाप का फल | Paap Ka Fal

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Paap Ka Fal by पंडित पारसनाथ त्रिपाठी - Pandit Parsnath tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गा०--बहुत अच्छा राम०--नाम, गांव वरगेरः सब वही रहेगा, केवल मालयुज़ारी _ का झँक बदल देना देगा । गा ०--हां, सब समभक गया, कल ही से उस में हाथ लगाऊ गा | राम०--झंहा, झाइये, किघर से कंपा हुई है ? _ गांव के पुराहित देवशरण शर्स्मां आरा पहुंचे है, रामसुन्दर ने _ दूर ही से उन्हें देख, उक्क प्रकार से झमभ्यर्थना की और पुरोहित के पास आने पर उन की पंद-घूलि शिरश् पर रख, बैठने के लिये उन्हें झासन दिया । माला फिर खड़खड़ करती हुई कुछ शोघता से चलने लगी । -” बेवशरण ने कहा--“ मैं लाला के यहां गया था, साचा कि शव इघर ही से ज़रा हाता चल ।”” ं राम०--झाना ही चाहिये। बिना शाप जैसे ब्राह्मणों के पांच की धूलि गिरे, हम लोगों की कुटी पवित्र होने वांली नहीं । शस्मी--दझाज कल कीमें। की बड़ी भीड़ रहती है। लाला श्रार पर आप के यहां दिन में एक बार झाना ज़रूरी काम है । रास०--कहिये, लाला साहब आज कल केसे है ? _.. शस्मो-वे ते झब जन्म रोगी से हो गये हैं।. खा नुफ्रहैर न . उन्हें पचता ही नहीं । राम०--उन का लड़का मकान पर है या नहीं ? ......... “1 शर्स्सा-रहाँ, कल श्ाया है। चह भी तो एकदम बिगड़ गया | हिन्दू-घर्म में श्ब उस की श्वास्था नहीं । कहीं की एक विधवा से




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