एक युग : एक प्रतीक | Ek Yug : Ek Pratik

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : एक युग : एक प्रतीक  - Ek Yug : Ek Pratik

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

देवेन्द्र सत्यार्थी - Devendra Satyarthi

No Information available about देवेन्द्र सत्यार्थी - Devendra Satyarthi

Add Infomation AboutDevendra Satyarthi
Author Image Avatar

हजारी प्रसाद द्विवेदी - Hazari Prasad Dwivedi

हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

Read More About Hazari Prasad Dwivedi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
र९ ६ सो, मनुष्य जो रहस्य की व्याख्या किया करता है वह सथ समयः सत्य के नजदीक ही नहीं होता । श्नोर यह श्रच्छा ही है क्रि उसे सद रहस्या का पता नहीं है । मगर बलिहारी है उस जादूगर के हुनर की; जिसने इतने बडु रहस्य को इतना सुन्दर बना दिया । मैंने शरीर श्रापने किसी दिन साथ ही साथ साहित्य क्षेत्र में प्रवेश किया था । अप शाश्वत मानव-चित्त के रस-निभर का संघान खोजने निकल पड़े आर म ररो-स्यई बोलियां के माध्यम से कविता का रहस्य समभाने लगा । लेकिन शुरू में ही ज्योतिष की छाया पढ़ जाने से मेरी दृष्टि कुछ ्रजीब-सी धूमिल हदो गई थी । स॒मे उन तथाकयित बड़ी बड़ी वातां को गम्भीरतापूवक न देखने की श्रादत पड़ गद है जिन्हें मनुष्य मे लोभवश श्रौर मोहवश बड़प्पन दे रखा है । में दुनिया की ऐती बटुत-सी बाता का हंस के टाल सकता हूँ जिन्हें साधारणतः परिडितजन भी महत्वपूण मान लेते है । में बराबर संचता रहता हूँ कि श्नन्तकाल छर श्ननन्त देश के भीतर यह श्रत्यन्त तुच्छ मानव-जीवन आर उसकी चेष्ठा बहुत अधिक महत्व की वस्तु नहीं हैं । साहित्य के अध्ययन ने इसमें थोड़ा सुधार भी किया है । मैं मनुष्य की उस महिमा को भूल नहीं सकता जो इस विशाल ब्रझांड की नाप-जोख करने का साहस रखती है । ज्योतिप ने मेरी दृष्टि में जद्दां उपेक्षा की धूमिलता दी है वहीं कविता ने म॒मे मनुष्य के हृदय की महिमा समभने की रगोनी भीदीदहे। में जानता हूं कि इस हृदय से निकला हृश्रा हर ई'ट-पत्थर अमूल्य हो जाता हैं। कविता में उस हुद्य गंगा के स्नात नश्वर पदार्था की महिमा व्यक्त होती है । इन कास के पूलों की क्या बिसात है; इन हंसों की ध्वदि का कया मूल्य है, इस कब के ठण्ट़े बने हुए राख श्रार घूल के देले चन्द्रमा की क्या बुकत है, परन्तु मनुष्य के हदय के भीतर से एक बार धुल जाने के बाद इनकी कीमत झ्रांकिये । हां; मनुष्य मनुष्य कहाने- लायक होना चाहिए । कालिदास की आंखों के रास्ते यहीं शरद ऋतु. किसी दिन उनके विशाल शोर सरस हृदय में प्रविष् हुई थी। वहां से




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now