श्रावक धर्म संहिता | Shrawak Dharm Sanhita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धदट््रन्य ६ स्वयं सिद्ध तया परमात्मा को सर्व, वीतराग, परमशांतरूप पूर्ण सुखी मानता है, सलिए जेन मत का नास्तिक कहना अ्रतिश्रमयुक्त है । इन वातो पर जव प्रत्यक्ष, अ्रनुमान ग्रौर श्रागम प्रमाण द्वारा सूक्ष्म विचार किया जाता है, तो यही सिद्ध होता है कि ईश्वर (परमात्मा, खुदा या गांड) तों कृन-कृत्य ग्रौर निष्कर्म अवस्था को प्राप्त होकर झ्रात्मानन्द में मग्न रहते हैं। उनको सृष्टि के करने, घरने, विगाडने मे क्या प्रयोजन ? लोक मे जो जीव-पुद्गलका परिणमन हो रहा है वह उन द्रव्यो के गक्तिरूप उपादान तथा श्रन्य वाह्य निमित्त कारणों से ही होता है । षटद्रव्य इस लोक मे चैतन्य और जड दो प्रकार के पदार्थ है । इनमे चैतन्य एक जीव-द्रव्य ही है, गेप पुदुगल, धर्म, अरघर्म, आराकाण, श्र काल ये पाचो द्रव्य जड है इनमे जीव, पुद्गल, घर्म, मरघर्म, काल ये ५ द्रव्य श्रनन्त-श्राकारा के मध्य भरे हुए है । यहू लोक श्राकाश सहित पट द्रव्यमय है अर्थात्‌ जितने झाकाश मे जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य, घर्म द्रव्य, स्रघर्म द्रव्य, काल द्रव्य (श्र छटा श्राकान द्रव्य झ्राघार रूप हैं ही) है वह लोकाकाश कहलाता है, नेष लोक से परे अनन्त अ्रलोकाकाद है । यहाँ प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि श्राकाण के ठीक वीचो-वीच लोक है यह कंसे निष्चय हो ? इसका समाधान यह है कि जब लोक से परे सव तरफ श्रनन्त श्राकाण है रथात्‌ सव तरफ श्रनन्त कौ गणना लिये एक बरावर श्राकादय है तो सिद्ध हुआ कि श्राकाश के झ्रति मध्य भाग मे ही लोक है । इन छहट्दों द्रव्यो में जीव द्रव्य की सख्या (गणना) श्रक्षयानन्त है । पुट्गलद्रव्य की परमाणु सख्या जीवो से ग्रनतानतगुणी है । धर्म-द्रव्य, अघर्म द्रव्य, झ्राकाण द्रव्य एक-एक ही है । काल के कालाणु श्रसख्यात है । जीव द्रव्य प्रत्येक जीव चैतन्य ्र्थात्‌ ज्ञान देन लक्षणयुक्तं श्रसंख्यात प्रदेशी है । यद्यपि इसका स्वभाव शुद्ध चैतन्य (देखने जानने) मात्र है, तथापि ग्रनादि पुद्गल (द्रव्यकमं) सयोग से रागं परूप परिणमन करता हुख्रा विभावरूप हौ र्हा है । जिससे इसमे स्वभाव विभावरूप € प्रकार की परिणतिया पाई जाती द




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