बीकानेर के व्याख्यान | Bikaner Ke Vyakhyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
373
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अगवान शान्तिनाय १७
स्वर्मगसुख मे न चहु देहु सुकेयो न कहु
घास खाय रह मेरे दिल यही भाः है ।
जो तु यह जनत टै वेद यो बखानत है
यज्ञ-जसै जीव पावे स्वर्ग-सुखदायी है ।
डारो क्यो न वोर ! या मैं श्रपने कुटुम्ब ही को;
सोहि जिन जारं -जगदीस को दुहाई है ॥
पथुभ्रो की यह प्राथ॑ना है । वे दीन से दीन स्वर में
यज करने वाले से कहते हैं-क्या तुम ईद्वर के भक्त हो
जिस वेद के नाम पर तुम हमे होमते हौ उसमे, कटे हुए
्रहिसा घमं को छिपा कर हमें होमने में तुम्हारी कौन-सी
जडाई है ? मैं स्वर्ग का सुख नहीं चाहता । मैं तो घास
खाकर जीवित रहना चाहता हूं । हे याज्ञिक ' श्रगर तू
सच्चे दिल से समभकता है कि यज्ञ मे होमा हुमा जीवधघारी
स्वर्ग मे जाता है तो श्रपने कुट्म्बको ही स्वर्ग भेजने के
लिएक्यो नही होम देता? हम मूक पशुभ्रो से क्यो
रूठा है। |
एक श्रादमी श्रपने हाथमे हरी-हकी घास लेकर
खडा हो प्रौर दूसरा स्वर्ग मे भेजने के लिए तलवार लिए
खडा हो तो इन दोनों मे से पशु किसे पसद करेगा ? वह
किसकी श्रोर मुह लपकाएंगा ? 7
“घास वाले की श्रोर ! '
इससे प्रकट है कि पलु स्वर्गं जानेके लिए मरना
नही चाहता श्रौर घास खाकर जीवित रहना चाहता है ।
मन्त्री कहता है-त्रगर यज्ञ करने वाले कहते है कि पशु
को प्रज्ञान है श्रौर हम ज्ञानी हु, इसीलिए उन्हे स्वर्ग भेजते
हैं, तो इसके उत्तर मे शुभ्रो का कहना है कि हमे तो
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